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________________ योगसार टीका । [२१९ (१) रन-आत्मा रत्नके समान जगत में एक अमूल्य द्रव्य है, परम धन है, आत्मज्ञानी रनका स्वामी सम्यग्दृष्टी जौहरी है, जो पहचानता है कि आत्मा परम शुद्ध है, अभेद है, सदा ही ज्ञानज्योति प्रकाशमान है, अविनाशी है, स्वयं सम्यग्दर्शन रत्नमय सम्यग्ज्ञान रत्नमय र सम्यक्चारित्र रत्नमय, रत्नत्रय स्वरूप है, एक अनुपम रन है। (२) दीप-आत्मा दीपकके समान स्वपर प्रकाशमान है। एक ही कालमें यह आत्मा अपनेको भी जानता है व सर्व द्रव्योंको व उनके गुण व पर्यायोंको जानता है तौभी पर शेयोंसे भिन्न है । यह आत्मा अनुपम दीपक कमी नही बुझ्नेवाला है। इस आत्मा दीपकको किसी तेलकी जरूरत नहीं है, न कोई पवन इसे बुझा सक्ता है। यह दीपक सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल भावोंको एक साथ झलकानेवाला है। (३) मूर्य-आत्मा सूर्यके समान प्रकाशमान व प्रतापवान है । सर्व लोकालोकका ज्ञातादृष्टा है व परम वीर्यवान है । व परम शात है । इसलिये यह एक अनुपम सूर्य है । कभी छिपता नहीं है। किसी मेघ या राहुसे ग्रसित नहीं होता है । स्वयं परमानन्दमय है। जो इस आत्मा सूर्यको देखता है उसको भी आनन्द दाता है। यह सदा निरावरण है, एक नियमित स्त्रक्षेत्रमें या असंख्यातप्रदेशी होकर किसी देहमें या देहके आकार होते हुए भी लोकालोकका प्रकाशक है | (४) दुध, दही, घी-के समान यह आस्मा है । आत्माके दूध सदृश शुद्ध स्वभावके मनन करनेसे आत्माकी भावना दृढ़ होती है । आत्माकी भावनाकी जागृति ही दहींका बनना है। फिर जैसे दहाँके विलानेसे थी सहित मक्खन निकलता है वैसे आत्माकी भावना करते करते आत्मानुभव होता है, जो परमानन्द देता हुआ -..
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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