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________________ योगासाका 'पानीक. स्थानमें . रंगीन पानी पीकर पानीका असली स्वाद नहीं पा सकेगा, उसीतरह जो कमकि उदयसे होनेवाली विकारी अवस्थाओंको आत्मा मान लेगा और उस आत्माका ग्रहण करके उसका ध्यान करंगा उस अज्ञानीको असली आत्माके नानानन्द स्वभावका स्वाद नहीं मिलेगा, वह विपरीत स्वादको ही आस्माका स्वाद मान लेगा । ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, अन्तरायके क्षयोपशमसे जो अल्प व अशुद्ध ज्ञानदर्शनवीर्य संसारी जीवोंमें प्रगट होता है वह इन ही तीन प्रकारके कर्मोके उदयसे मलीन हैं। जहाँ सर्वाती कर्मस्पर्द्धकोका उदयाभाव लक्षण क्षय हो, अर्थान् विना फल दिये झड़ना हो तथा आगामी उद्या आनेवालोंका सत्तारूप उपशम हो तथा देशमाती स्पर्द्धकोंका उदय हो उसको क्षयोपशम कहते हैं । इस मलीन अल्प हान दर्शन वीर्यको पूर्ण ज्ञानदर्शन वीर्य मानना मिथ्या है। इसीतरह मोहनीय कर्मक उदषसे क्रोध, मान, माया, लोभ भाव या हाम्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा व स्त्रीवेद, पुंवेद व नपुंसकंवंद भाव होता है | कभी लोभका तीन उदय होता है तब उसको अशुभ राग कहते हैं, कभी लोभका मन्द उदय होता है तब उसे शुभ राग कहते हैं। ___ मान, माया, क्रोधके तीत्र उद्यको भी अशुभ भाव व मन्द उदयको जो शुभ राराका सहकारी हो, शुभ भाव कहते है । पूजा, भक्ति, दान, परोपकार, सेवा, क्षमा, नम्रता, सरलना, सत्य, सन्तोष, संयम, उपवासादि तप, आहार, औषधि, अभय व विद्यादान, अल्प ममत्व व ब्राह्मचर्य पालन आदि भाषोंको शुभ भाव या शुभोपयोग कहते हैं । ऐमे भावोंसे पुण्यकमका पन्ध होता है। हिमा, असत्य, चोरी, कुशील, मूर्छा, आखेलना, मांसाहार, मदिरापान, शिकार, वैश्यासेवन; परस्सीसेवन, परका अपकार, दुष्ट
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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