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________________ योगसार टीका। बहिरात्मा परको आप मानता है। देहादिउ जे पर कहिया ते अप्पाणु मुणेई । सोबहिरप्पा जिणभणिउ पुणु संसार भभेइ ॥ १० ॥ अन्वयार्थ (दहादिर जे पर कहिया) शरीर आदि जिनको आत्मासे भिन्न कहा गया है (ते अप्पाणु मुणेइ) तिन रूप ही अपनेको मानता है (सो बाहिरप्पा) वह बहिरात्मा ई (जिणभणिउ) ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है (पुणु संसार भमंइ) वह वारवार संसारमें भ्रमण करता रहता हैं। भावार्थ-आत्मा वास्तवमें एक अखंड अमूर्तीक ज्ञानस्वरूपी न्य है। इसका स्वभाव परम शुद्ध है । निर्मल जलके समान यह परम वीतराग व शांत व परमानंदमय है। जैसा सिद्ध परमात्मा सिद्धक्षेत्रमें एकाकी निरंजन शुद्ध द्रव्य है वैसा ही यह अपना आत्मा शरीरके भीतर है। अपने आत्मा और परमात्मामें सत्ताकी अपेक्षा अर्थात प्रदेशोंकी या आकारकी अपेक्षा बिलकुल भिन्नता है परंतु गुणोंकी अपेक्षा बिलकुल एकता है । जितने गुण एक आत्मामें हैं उतने गुण दुसरे आत्मामें हैं। प्रदेशोंकी गणना भी समान है। हरक असंख्यात प्रदेश धारी हैं । ___ इस तरहका यह आत्मा द्रव्य है। जो कोई ऐसा नहीं मानता किन्तु आत्माके साथ आठ काँका संयोग सम्बंध होनेमें उन काँके उदय या फलमे जो जो अशुद्ध अवस्था आत्माकी झलकती हैं उनको आत्माका स्वभाव जो मान लेता है वह बहिरात्मा है। जैसे पानी में भिन्न २ प्रकारका रंग मिला देनेसे पानी लाल, हरा, पीला, काला, नीला दिखता है । इस रंगीन पानीको कोई असली पानी मानले तो उसको मूढ़ व अलानी कईगे तथा वन
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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