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________________ गोगनार टीशा। व्यवहार, इंद्रियोंकी लोलुपता, तीन अहंकार, कपटसे ठगना, तीत्र क्रोध, तीन लोभ, जीत्र काममाव आदि भावोंको अशुभ भाव या अशुभोपयोग कहते हैं। इन अशुभ भावोंसे पापकर्मका बंध होता है। इन मोहनीय कर्मजनित मलीन व अशुचि, आकुलताकारी, दुःखप्रद, शांतिविघातक भावोंको आत्माका भाव मानलेना मिथ्या है । अघातीय काँमें आयुकर्मके उदयसे नरक, तिथंच, मानव, देव चार प्रकार शरीरोस आत्मा केद रहता है। इस केदखानेको आत्माका धर मानना मि' या | नामकर्मके उदयसे शरीरकी सुन्दर, असुन्दर,. निरोगी, सरोगी, बलिष्ठ, निर्वल आदि अनेक अवस्थाएं होती हैं उनको आत्मा मानना मिथ्या है । गोत्रकर्मके उदयसे नीच य ऊंच कुलवाला कहलाता है। उन कुलोंको आत्मा मानना मिथ्या है । वेदनीयकर्मके उदयसे साताकारी व असाताकारी शरीरकी अवस्था होती है या धन, कुटुम्ब, राज्य, भूमि, बाइन, घर आदि बाहरी अच्छे व खुरे, वेतन व अचेतन पदाधीका सम्बन्ध होता है, उनको. अपना मानना लिया है। चाहिरात्मा अज्ञानस कर्मजनित दशाओंक भीतर आपापना मानकर अपने आत्माके सच्चे स्वभावको भूले हुए कभी भी निर्माणका भय नहीं पा सक्ता । निरन्तर शुभ अशुभ कर्म बांधकर एक गलिसे दूसरीमें, दूसरीन लीसरीमें इस तरह अनादि कालसे भ्रमण करता चला आया है। यदि कोई साधु या गृहस्थका चारित्र पाले और इसे भी · आत्माका स्वभाव जानले व में साधु में श्रावक ऐसा अहंकार करे तो वह भी बहिरामा है। . यद्यपि ज्ञानी मात्रक व साधुका आचरण पालता है तौभी वह उसे विभाव जानता है, आत्माका स्वभाष नहीं जानता । परम
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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