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'जोगिचन्द्र' लिखा है, किन्तु यह नाम योगीन्द्रसे मेल नहीं खाता । अतः मेरी राय में ' योगीन्द्र के स्थान में 'योगीन्दु ' पाठ है, जो 'योगिचन्द्र' का समानार्थक है ।
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ऐसे अनेक
हैं,
म इन्दु और चन्द्र आपस में बदल दिये गये हैं। जैसे भागेन्दु और भागचन्द्र तथा शुभेन्दु और शुभचन्द्र । गलती से जोहन्दुका संस्कृतरूप योगीन्द्र मान लिया गया और वह प्रचलित होगया । ऐसे बहुत से प्राकृत शब्द हैं जो विभिन्न लेखकोंके द्वारा गलत रूपमें तथा प्रायः विभिन्न रूपों में संस्कृत में परिवर्तित किये गये हैं। योगसार के सम्वादकने इसका निर्देश किया था, किन्तु उन्होंने दोनों नामोंको मिलाकर एक तीसरे 'योगीन्द्रचन्द्र नामकी सृष्टि कर डाली, और इसतरह विद्वानोंको हंसनेका अवसर दे दिया। किन्तु यदि हम उनका नाम जोइन्दु योगीन्दु रखते हैं, तो सब बातें ठीक ठीक घटित होजाती है ।
योगीन्दुकी रचनाएँ - श्री योगीन्दुदेव के रचित निम्नलिखित ग्रन्थ कहे जाते हैं- १ परमात्मप्रकाश ( अपभ्रंश ), २ नौकार श्रावकाचार (अप), ३ योगसार (अप) ४ अध्यात्म सम्मोह (संस्कृत), ५ सुभाषित तंत्र ( ० ). ६ टीका (i) | इनके सित्राय योगीन्दुके नामपर ३ और धन्य भी प्रकाशमं आचुके हैं - एक दोहा
पाहुड (अप), दूसरा अमृताशीनि (सं०) और तीसरा निजात्माएक
(प्रा० ) इनमें से नं० ४ और ५ के बारेमें कुछ मालूम नहीं है और नं० ६के बारेमें योगदेव, जिन्होंने सत्यार्थपर संस्कृत में टीका बनाई हैं, और योगीन्दुदेव नामोंकी समानता सन्देह में डाल देती है । योगसार इसका मुख्य विषय परमात्म प्रकाशका सा ही है। इसमें संसारकी प्रत्येक वस्तु आत्माको सर्वश्रा प्रथक अनुभवन करनेका उपदेश दिया गया है। ग्रंथकार कहते हैं कि संसारस
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