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भयभीत और मोक्षके लिये उत्सुक प्राणियोंकी आत्माको जगाने के लिये जोगिचन्द्र साधुने इन दोहींको रचा है | ग्रंथकार लिखते हैं कि उनने प्रेथको दोहोंमें रचा है, किन्तु उपलब्ध प्रतिमें एक चौपाई और दो सोरठा भी हैं। इसमे अनुमान होता है कि मम्भवतः प्रतियों पूर्ण सुरक्षित नहीं रही हैं।
अन्तिम पयामें ग्रंथकर्ताका नाम जोगिचन्द्र (जोइन्दु योगीन्दु ) का उल्लेख, आरंभिक मंगलाचरणकी सदृशता, मुख्य विषयकी एकता, वर्णनकी शैली और वाक्य तथा पंक्तियोंकी समानता बतलाती है कि दोनों प्रन्ध एक ही कर्ता जोईदकी रचना है। पहले योगसार मा शिकचन्द्र अन्धमा बबईसे प्रकाशित हुआ था, किन्तु उसमें अनेक अशुद्धियां हैं । यदि उसके अशुद्ध पाठौंको दृष्टि में न लाया जाये नी भाषाकी दृष्टिसे दोनों ग्रन्थोंमें समानना है । केवल कुछ अन्तर, जो पाठक हदयको स्पर्श करते है. इस प्रकार हैं-योगसारमें एक वचनमें प्रायः 'हु' और 'ह' आता है, किन्तु परमात्मप्रकाशमें 'है' आना है। योगसारमें वर्तमान कालफे. द्वितीय पुरुष एक बचनमें हु' और 'डि' पाया जाता है, किन्तु परमात्मप्रकाश में केवल हि' आता है । पंचाग्निकायक्रो टीकामें नीजयमेनने योगसारमें एक पद्य भी उड़न किया है । अनेक प्रश्रन्ट अनुमानोंम योगीन्दुदेवका समय ईसाकी छठी शताब्दी निर्धारित किया गया है ।*
परमेष्टीदास जैन न्यायतीर्थ, मुरत । • गुग्यप्रमाबय मान द्वारा प्रकाशित परमात्सप्रकादमें प्रीतम 1. न उपाध्याय द्वारा निम्वित ८८ पृष्ठकी वो जपूर्ण प्रताधना ( अंग्रेजी ) का मानस हिन्दी ३० पृटम ५० कैलाशचन्द्र जी . शास्त्रीने लिखा है. उससे यह मार में लिया है। विशेष जाननेके रिस्य परभारमनकाश मंगाकर इस्त्रना चाहिये । . प. अन ।