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योगसार टीका ।
मोक्षपाहुड में श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैंजो देहे रियेक्खो दियो णिम्ममो णिरारंभो । आदसहारे सुरओ जोई सो लहड़ णिव्वाणं ।। १२ । सद्दद्व्यरओ सबणो सम्माइट्ठी हवे सो साहू | सम्मत्तपरिषदो उण खबेह दुकम्माई ॥ १४ ॥ आदसहाचादष्णं सचिता चित्तमिस्सिय हवइ । तं परदव्यं मणि अतित्यं सव्वदरसीहिं ॥ १७॥ दुकम्मर हियं अणोवमं णागविभा णि ।
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सुद्ध जिहिं कहिये अमाणं हवइ सव्वं ॥ १८ ॥ जे झायंति सव्वं परद्रव्यपरम्हा हु सुचरिता |
ते जिणवराण मी अणुमा लहूदि णिव्वाणं ॥ १९॥ भावार्थ सो कोई शरीर से उदास हो, इन्द्र या रागद्वेपसे रहित हो, समकारसे परे हो, सर्व लौकिक व धार्मिक आरंभसे रहित हो, केवल एक अपने आत्माके स्वभावमें भलेप्रकार छीन हो, वही योगी निर्वाणको पाता है। जो अपने ही आत्माके द्रव्यमें लीन हैं यही साधु या श्रावक सम्स्ट्री है, वही दुष्ट आठों कर्मका क्षय करता है । अपने आत्माके स्वभावसे अन्य सर्व चेतन या अचेतन या मिश्र द्रव्य परद्रव्य है ऐसा यथार्थ कथन सर्वदर्शी भगवानने बताया है । दुष्ट आठ कर्मों से रहित, अनुपम ज्ञानशरीरी, नित्य, शुद्ध अपना आत्मा ही स्वद्रव्य है ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। जो अपने आत्मद्रव्यको ध्याते हैं, परदोंसे उपयोगको हटाते हैं तथा सुन्दर चारित्रको पालते हैं व जिनेन्द्रके मार्गमें भलेप्रकार चलते हैं वे ही निर्वाणको पाते हैं ।
समाधिशतक में कहा है