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योगसार टीका |
नासाप्रन्यस्तनिष्यंदलोचनो मंदमुच्छ्रवसन् । द्वात्रिंशदोषनिकायोत्सर्गव्यवस्थितः ॥ ९३ ॥
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प्रत्याहत्याक्षलुंदाकांस्तदर्थेभ्यः प्रयत्नतः ।
चितां चाक्लृप्य सर्वेभ्यो निरुध्य ध्येयवस्तुनि ॥ ९४ ॥ निरस्तनिद्रो निर्भीतिनिरालस्यो निरन्तरं । स्वरूपं पररूपं वा ध्यायेदंतर्विशुद्धये ॥ ९५ ॥
भावार्थ - दिन हो या रात, सूने स्थान में, गुफामें, स्त्री, पशु.. नपुंसक के परा या किसी शुभ जीवरहित, समतल स्थान में, जहां वेतन व अचेतन सर्व प्रकार के वित्रोंका नाश हो, भूमि में या शिला पर सुखासनसे बैठकर या खड़े होकर सीधा निष्कम्प समतील रूप शरीरको धारण करके निश्चल बने, नासाग्र दृष्टि, मंद मंद श्वास लेता हुआ बत्तीस कायोत्सर्ग के दोषों से रहित होकर व प्रयत्न करके इंद्रिय रूपी लुटेरोंको विषयोंसे रोककर व चित्तको सब भावोंसे रोककर ध्येय वस्तुको जोड़कर, निद्राको जीतता हुआ, भय रहित हो, आलस्य रहित हो, निरंतर अपने ही आत्मा शुद्ध स्वरूपको या पर सिद्धोंके स्वरूपको अंतरंग की शुद्धिके लिये न्यावे | समाधिशतक में कहा है
रागद्वेषादिकल्लोलैस्लोल यन्मनोजलम् ।
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं स तत्त्वं नेतरो जनः ॥ ३५ ॥
भावार्थ - जिस ध्यानीका अनुराग द्वेषादिकी लहरोंसे चञ्चल नहीं होता है वही आत्माके स्वभावको अनुभव करता है, रागी द्वेषी अनुभव नहीं कर सकता है।