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________________ : योगसार टीका । | २०७ अनुभव उनको नहीं होता है अतएव ये भी जड़ ही के समान आत्मज्ञान राहत हैं । मोक्षमार्गको न पाकर निर्वाणका लाभ भी कर सकते हैं। जिनवाणी पढ़ने का फल निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करनेका प्रयास है। इसीके लिये चारों अनुयोगोंके ग्रंथोंको पढ़कर शास्त्रीय विपयको जानकर मुख्यतासे यह जानना चाहिये कि यह जगत जीवादि छः द्रव्यों का समुदाय है । हरएक द्रव्य नित्य है तो भी पर्यायी पनकी अपेक्षा अनित्य है । जगत भी नित्य अनित्य स्वरूप अनादि अनंत है । इन छः द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश, काल सदा ही शुद्ध उदासीन व निश्चल रहते हैं । शुद्ध आत्माएं भी निश्चल व उदासीन रहती है । संसारी आत्माएं कर्म गुलोंसे संयोग रखती हुई अशुद्ध हैं। कमौके उदयसे ही चार गतियोंमें नाना प्रकारकी अवस्थाएँ होती हैं। कर्मकि उदयसे ही औदारिक, वैक्रियिक आदि शरीर बनते हैं। यह जीव स्वयं ही मन, वचन या कायके बर्तनसे कमको ग्रहण करके कषायोंके अनुसार बांधता है । आप ही अपनी राग द्वेष मोहकी परिणतिके निमित्तसे एक तरफ बंधता रहता है, दूसरी तरफ कर्मो का फल भोगकर निर्जरा करता रहता है, इसतरह परम पुण्यके फलको भोगता हुआ संसार में जन्म जरा मरण, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग धोर कट पाता है । इस के छूटने का उपाय रत्नत्रय धर्मकी प्राप्ति है जिससे संघर हो, नवीन कर्मोंका आना रुके व पुरातन बंधे कर्मोकी अविपाक निर्जरा हो । समयके पहले ही बिना फळ दिये झड़ जावे जिससे यह आत्मा कर्मके संयोगसे बिलकुल छूटकर मुक्त होजाये। इसतरह व्यवहारनयसे विस्ताररूप जीवादि सास तत्वोंको भलेप्रकार बुद्धिमें निर्णय करके उनका स्वरूप श्रद्धामें लावे व यह मानकर दृढ़ करे कि मुझे शुद्ध
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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