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________________ २०६] योगसार टीका । मध्ये वृद्धतृषाजितुं वसुपशः किनासि कृप्यादिभि दो वार्द्धमृतः क जन्मफलिते धर्मो भवन्निर्मलः ।। ८२ ॥ भावार्थ-बालवयमें अंग ही पूरे नहीं बनते तब अज्ञानी होकर अपने हित या अहितका विचार नहीं कर सकता है | युवानीमें कामसे अन्धा होकर स्त्रीरूपी वृक्षोंसे भरे वनमें भटकता रहता है । मध्यकालमें ष्णाकी वृद्धि करके अज्ञानी प्राणी खेती आदि धन्धोंसे धनको कमानेमें कष्ट पाया करता है। इतनेमें वुढ़ापा आ जाता है तब अधमरा होजाता है । भला हम मानव जन्मको सफल करनेके लिये निर्मल वर्मको कहां करें ? मानव अपना अमूल्य जीवन विषयोंके पीछे गमा देता है | आत्महित नहीं करके भवभ्रमणमें ही दुःख उठाता है। शास्त्रपाठ आत्मज्ञान विना निष्फल है । सत्य पर्वतह ते वि जड अप्पा जे ण मुगति । तहिं कारणि ए जीव फुड ण हु णिव्याणु लहति ॥५३॥ अन्वयार्थ (सत्य पढतह ते अप्पा ण मुणति जे विजड) शास्त्रोंको पढ़ते हुए जो आत्माको नहीं पहचानते है वे भी अज्ञानी हैं ( तहिं कारणि ए जीव फुड्डु ण हु णिव्वाणु लहंति ) यही कारण है कि ऐसे शाखपाठी जीव भी निर्माणको नहीं पाते हैं, यह बात स्पष्ट है। भावार्थ-कितने ही विद्वान या स्वाध्याय करनेवाले व्याकरण, न्याय, काव्य, वैद्यक, ज्योतिष, धर्मशास्त्र आदि अनेक विषयके शास्त्र "जानते हैं, परंतु शुद्ध निश्चयनयके विषय पर लक्ष्य नहीं देते, अध्यास्मशानसे बाहर रहते हैं। आत्मा ही निश्चयसे परमात्मा देव है ऐसा --
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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