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________________ ८०] योगसार टीका । हाथमें नहीं आयगा | जितना कुछ व्यापार मन वचन कायका हैं उससे विमुख होकर जब आत्मः आत्मामें हो विश्राम करता है तब आत्मदर्शन होता है । वापर एक सहजज्ञान है। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल ये ज्ञान के मंदाका कोई विकल्प नहीं है। साधकको पहले तो यह उचित है कि आत्माके स्वभावका व विभावका निश्चय शास्त्रकि द्वारा कर डाले । आत्मा किस तरह कौंको बांधना है, काँके उदय से क्या र अवस्था होती है, कर्माको कैसे रोका जावे, कर्मोंका भय कम हो, मोन क्या वस्तु है, इसतरह जीवादि सात तत्वोंका झाल अलेप्रकार प्राप्त करना चाहिये । संशय रहित अपने आत्माको कमरोगको अवस्थाको जान लेना चाहिये । सायग्निद्धि, गोम्मटसार जीवकांउ कर्मकांडका ज्ञान आवश्यक है। नया न्यबहार चारित्रको भी जानना चाहिये | साधु व श्रावकके आधारका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । पश्चात निश्चय से आत्माके स्वभावक ज्ञान होनेके लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य रचित पंचास्तिकाय, अवचनसार, समत्रसारको या नियमसारका, अपाहुडको समझकर निश्चय आत्मतत्यको जानना चाहिये कि यह मात्र अपनी ही शुद्ध परिणतिका कता है वे अपनी ही शुद्ध परिणतिका ही भोक्ता है। यह परम वीतराग व परमानन्द स्वभावका धारी है ! व्यवहार रत्नत्रयका ज्ञान मान मिमिन कारग होनेक लिये सहायकारी हैं, निश्चय तत्वका ज्ञान स्वानुभवके लिये हितकारी है। साधकको उचित है कि व्यवहार चारित्रके आधार जैनधर्मका आचार पाले । जिससे मन, वचन, कायका वर्तन हानिकारक न हो उनको वशमें रखा जासके फिर ध्यानका अभ्यास किया जाये ! एकांतमें बैठकर आसन जमाकर पहले तो आत्माको द्रव्याथिक नयसे अभेदरूप विचारा जाये।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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