SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८] योगसार दीका। केवली भगवानकी आत्माकी स्तुति है वहीं केवलोकी यथार्थ स्तुति है। जैसे कहना कि जो मोहको जानकर ज्ञानस्वभाबसे पूर्ण आत्माका अनुभव करता है वह जितमोह है ऐसा परमायके ज्ञाता कहते हैं । निश्चय स्तुति आसपर नाश्य रिसाती है इसलिये माश है। मिथ्यादृष्टीक व्रतादि मोक्षमार्ग नहीं। वयतवसंजममूलगुण मुहह मोक्स गिवृत्तु । जाम ण जाणइ इक परु सुद्धउभाउपवित्तु ।। २९ ।। अन्वयार्थ - (जाम इक्क परु मुद्धउपविच भाउ ण जाणइ) जवतक एक परम शुद्ध व पवित्र भावका अनुभव नहीं होता ( मृहह चयतवसंजम मूलगुण मौकरव णिवुत्तु) तबतक मियादृष्टी अज्ञानी जीवोंके द्वारा किये गये उत, तप, संयम व मुलगण पालनको मोनका उपाय नहीं कहा जासक्ता । भावार्थ-निश्चय शुद्ध आत्माका भाव ही मोक्षका माग है। शुद्धोपयोगकी भावनाको नभाकर या शुद्ध तत्वका अनुभव न करते हुये जो कुछ व्यवहारचारित्र है वह मोक्षमार्ग नहीं है संसारमार्ग है ,पुष्यबधका कारक है। मिथ्याष्टी आत्मज्ञान शुन्य बहिरात्मा बाहर में मुनिभेष धरकरके यदि पांच महावत पाले.बारह तप तप, इंद्रिय प्राणिमयमको साधे नीचे लिखे प्रमाण अट्ठाईस मूलगुण पाले तौभी वह संवर व निर्जरा तत्वको न पाकर कर्मोमे मुक्ति नहीं पासता । ऐसा द्रव्यलिंगी साधु पुण्य आंधकर नौवें वेयिक तक जाकर अहमिंद्र होसक्ता है परन्तु संसारसे पार करनेवाले सभ्यरदर्शनके बिना अनन्त संसारमें ही भ्रमण करता है । व्यवहार चारित्रको निमित्त मात्र व बाहरी आलम्बन मात्र मानके व निश्चय चारित्रको उपादान कारण मानके जो
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy