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योगसार बनी १०५ उत्कृष्ठ पदका परमंप्रमी होजाता है। उसके सिर यह अनुकम्पा पैदा होजाती है कि जिनके समान होते हुए भी इसे भवभवमें जन्म मरणके कप्प सहने पड़े यह बात ठीक नहीं है। इसे तो जिनके समान स्वतंत्र व पूर्ण व पवित्र रमा देना चाहिये । यह पर्यायकी अपेक्षा अपने आत्माको अशुद्ध रागी द्वेषी, अज्ञानी, कर्मबद्ध, शरीरमें कैद पाता है व श्री जिनेन्द्र भगवानको शुद्ध वीतरागी, शानी, कर्ममुक्त व शरीरसे रहित देखता है तब गाढ़ प्रेमाल व उत्साहित होजाता है कि शुद्ध पदमें अपने आत्माको शीघ्र पहुंचा देना चाहिये । वह जिन पदको आदर्श या शुद्धताका नमूना मानके हरसमय उनको धारणामें रखता है। ___गृहस्थीके काम व आहार विहारादि करते हुये भी बार बार जिनदेवको स्मरण करता है । कभी देवपूजादि व सामायिक समय जिनपदके स्वरूपका-जिनकी गुणावलीका चिन्तवन करता है । चिन्तवन करते करते क्षणमात्रके लिये स्थिर होता है। आपको जिन भगबानके स्वरूपमें जोड़ देता है । दोको पकी भावमें कर देता है। अनके गुढ़ भात्रमं एकतान होजाता है नब वास्तव में उसी क्षण आत्माका साक्षात्कार पाकर निर्वाणकासा आनन्द अनुभव करता हैं। न्यानमें थिरना कम होने पर फिर ध्यानस छूटकर चिन्तवन करने लगना है। फिर ध्यानको पालेता है। फिर आनंदका अमृत पीने लगता है | इसतरह जिन समान अपने आत्माका ध्यान ही परमपदके निकट लेजानेका वाहन होजाता है । यदि कोई साधु बनवृपभनाराच संहननका धारी लगातार एक मुहूत या ४८ मिनदसे कुछ कम समयनक ध्यान में एकतान होजावे तो चारों घातीय कर्मोंका क्षय करके अरमेन परमात्मा होजावे। फिर उस शरीरके पीछे शरीररहित सिद्ध होजावे ।