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________________ १६२ ] योगसार टीका । बाहिरलिंगेण जुदो अन्नंतर लिंगरहियपरियम्मो । सो सगचरितभट्टी मोक्खपविणासगी साहू ॥ ६१ ॥ भावार्थ- जी बाहरी भेष व चारित्र सहित है परन्तु भीतरी आत्मानुभवरूप चारित्रसे रहित है, वह स्वचारित्र भ्रष्ट होता हुआ Harrier featक है । जीव अजीबका भेद जानो । सोरटा जीवrates भेट जो जाणइ ति जाणियउ । } Hirat कारण एड भइ जोड़ जोइहि भणिउ ॥ ३८ ॥ अन्वयार्थ- - जोइ ) हे योगी ! ( जोइहिं भणिउ योगियोने कहा है (जीवाजीव भेज जो जाणइ ) ओ कोई जीव तथा अजीबका भेद जानता है (तिं योक्ख कारण जाणियउ ) उसने मोक्षका माग जाना है ( एउ भइ ) ऐसा कहा गया है। भावार्थ-बन्ध व मोक्षका व्यवहार तब ही सम्भव है जब दो भिन्न २ वस्तुएं हों, वे बन्धती व खुलती हों । गाय रस्सी से बंधी हैं, रस्सी छूट जानेपर गाय छूट गई । यदि अकेली गाय हो या अकेली रस्सी हो तो गायका बन्धना व छूटना हो नहीं सकता, उसी तरह यदि लोकमें जीव ही अकेला होता, अजीव न होता तो जीव कभी बन्धता व खुलता नहीं । संसारदशा में जीव अजोवका बंध है तब मोक्षदशा में जीवका अजीवसे छूटना होता है। दो प्रकारके भिन्नर द्रव्य यदि लोकमें नहीं होते तो संसार व मोक्षका होना संभव नहीं था। यह लोक छः द्रव्योंका समुदाय है, उनमें जीव सचेतन है। शेष पांच अचेतनं या अजीव हैं। इनमें चार द्रव्य तो बंध रहित शुद्ध दशामें खदा मिलते हैं।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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