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________________ योगसार टीका। [१६१ शुद्धभाव नहीं । यद्यपि इस विचारका आलम्बनदूसरे शुक्ल ध्यान तक है तथापि सम्यग्दृष्टी इस आलम्बनको भी त्यागने योग्य जानता है। सम्यक्तीका देव, गुरु, शान, घर, उपवन सब कुछ एक अपना ही शुद्धात्मा है, वहीं आसन है, वहीं शिला है, वहीं पर्वतकी गुफा हैं, वही सिंहासन है, वहीं शव्या है। ऐसा असंग भाव व शुद्ध श्रद्धान जिसको होता है वहीं सम्यग्दृष्टी ज्ञानी है, वही उस नौका पर आरूढ़ है जो संसारसागरसे पार करनेवाली है। व्यवहारके मोहसे कर्मका क्षय नहीं होगा। जो अहंकार करे कि मैं मुनि, मैं तपस्वी वह व्यवहारका मोही मोक्षमार्गी नहीं हैं । यद्यपि मुनिका नग्न मेष व श्रावकका सबस्त्र मेष निमित्त कारण है तथापि मोक्षका मार्ग तो एक खत्रय धर्म ही हैं ! समयसारमें कहा है मोत्तुग णिच्छ्यटै क्वहारे | विदुसा पवट्ठन्ति । परममम्सिदाणं दु जदीण कम्मक्खओ होदि ॥ १६३ ॥ भावार्थ-ज्ञानीजन निश्चय पदार्थको छोड़ कर व्यवहारके भीतर नहीं प्रवर्तते हैं । व्यवहारमे मोह नहीं रखते हैं। क्योंकि जो साधु परमार्थका या अपने शुद्धास्माका आश्रव करते हैं उन्हीके कर्माका भय होता है। पाखंडियलिंगेस व गिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु । कुन्वति जे ममर्ति तेहि णादं समयसारं ॥ ४३५॥ : भावार्थ-जो कोई साधुके भेषमें या व्यवहार चारित्रमें या नाना प्रकारके श्रावकके भेषमें या व्यवहार चारित्रमें ममताभाव करते हैं उन्होंने समयसार जो शुद्धारमा उसको नहीं जाना है। मोक्षपाइहमें कहा है
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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