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________________ योगसार टीका। [१६३ धर्म द्रव्य, अधर्मद्रव्य, काल व आकाश इनके सदा स्वभाव परिणमन होता है। जीव व पुलमें ही विभाव परिणामनकी शक्ति है। जीत्र पुदलके बंधमें जीवमें विभाव होते हैं । जीवके विभावके निमितसे पुइलमें विभाव परिणमन होता है । पुद्गल स्वयं भी स्कंध बनकर विभाव परिणमन करते हैं। हरएक संसारी जीव पुलस गाद बंधन रूप होरहा है । तैजस व कार्मणका सूक्ष्म शरीर अनादिसे सदा ही साथ रहता है । इनके सिवाय औदारिक शरीर, बैंक्रियिक शरीर व आहारक शरीर व भाषा व मनके पुद्गलोंका संबोग होता रहता है। यह जीव पुद्गलकी संगतिमें ऐसा एक्रमक होरहा है कि यह अपनेको भूल ही गया है । कमौक उदयके निमित्तम शो रागादि भावकर्म व दारीरादि नोकर्म होने हैं इन रूप ही अपनेको मानता रहता है। पुहलके मोहाचे नमत्त होरहा है इसीसे कीकर बंध करने वनको बढ़ाता है व कर्मोके उदयसे नानाप्रकार फल भोगता है। सुख तो रेचमात्र है. दुःख बहुत है। जन्म, मरण, जरा, इष्टवियोग, अनिष्ठ सयोगका अपार कष्ट है, तृष्णाकी दाहका अपार दुःख है। लब श्रीगुरुफे प्रसादसे या शास्त्रक प्रवचनसं इसको यह भेदविज्ञान हो कि में तो द्रव्य हूँ, मेरा स्वभाव परम शुद्ध निरंजन निर्विकार, अमूर्तीक, पूर्ण ज्ञान दर्शनमई व आनंदमई है, मेरे साथ पुगलका संयोग मेरा रूप नहीं है, मैं निश्चयसे पुगलसे व उदल कृत सर्व रागादि विकारोंसे बाहर हूं, पुद्गलका सम्बन्ध दुर करना योग्य है, मोक्ष प्राप्त करना योग्य है, इस तरह जब भेदविज्ञान हो व गुद्रलस पक्का वैराग्य हो तब मोक्षका उपाय हो सका है । तब यह दृढ़ बुद्धि हो कि कर्मोके आमव बंध पदुःश्यके मूल हैं। इनको छोड़ना चाहिये व मोक्षके कारण, संबर व निर्जरा है, इनका उपाय करना चाहिये । ऐसी प्रतीति होनेपर ही
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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