________________
योगसार टीका। [१५१ भावार्थ-आत्माको आत्माके द्वारा ग्रहण कर जो निश्चल होकर आत्माका अनुभव करता है वही आत्माका दर्शन करता हुआ कर्मकी निर्जरा करता है व मोक्षनगरमें शीघ्र ही पहुंच जाता है। जब आत्मा अपने मूल स्वभावको लक्ष्यमें लेकर ग्रहण करता है तब सर्व ही पर भावोंका सर्व त्याग होजाता है ! जैसे कोई स्त्री परके घरों में जाया करती थी, जब वह अपने ही घरमें बैठ गई तब पर धरोंका गमन स्वयं बंद होगया।
जितना कुछ प्रपंच या विकल्प परदव्योंके सम्बंधसे होता है यह सब पर भाव हैं। कर्मों के उदयसे जो भावक्रम रागादि शुभ या अशुभ होता है व नोकर्म शरीरादि होते हैं वे सब परभाव हैं। चौदह गुणस्थान व चौदह मार्गणाओंके भेद तब ही संभव है जब कर्म सहित आत्माको देखा जावे । अकेले कर्म रहित आत्मामें इन सबका दर्शन नहीं होता है। अपने आत्माके सिवाय अन्य आत्माएं संसारी व सिद्ध तथा सर्व ही पुद्गल परमाणु या स्कंध, तथा धाम्लिकाय, अधमास्तिकाय, कालाणु व आकाश ये सब परमात्र हैं। मनके भीतर होनेवाले मानसिक विकल्प भी परभाव है। आत्मा निर्विकल्प हैं, अभेद है, असंग है, निलेप है, निर्विकल्प भावमें ही प्रण होता है।
भूत, भविष्य, बर्तमान तीन काल सम्बंधी सर्व कर्मोसे व विकस्पोंसे आत्माको न्यारा देखना चाहिये । यद्यपि आत्मा अनंतगुण व पर्यायोंका समुदाय है तौभी ध्यानके समय उसके गुण गुणी भेदोंका विचार भी बंद करदेना चाहिये । आत्माके स्वाद लेने में एकाग्र होजाना चाहिये । बाहरी निमित्त इसीलिये मिलाए जाते हैं कि मनकी चंचलता मिटे, मन क्षोभित न हो। मनमें चिंताएं घर न करें। निग्रंथ साधुको ही शुद्धोपयोगकी भलेप्रकार प्राप्ति होती है, क्योंकि उसका मन परिप्रहकी चिन्तासे व आरंभके झंझट से अलग है। बिलकुल एकांत