SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ JI. योगसार टीका । जीववियुको सओ दसमुको य होइ चलसवओ जो लोउत्तरयम्मि चलसवओ ॥ १४३ ॥ सब जह तारण चंद्रो मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अहं सम्पत्ती रिसिसा वयदुविधम्माणं ॥ १४४ ॥ भाषार्थ - जीव रहित मुर्दा होता है। आत्मदर्शनरूप सम्यक्त के विना प्राणी चलता हुआ मुर्दा है। मुर्दा लोकमें माननीय नहीं होता.. जला दिया जाता है, चलनेवाला व्यवहार चारित्रवान मुर्दा परमाअपूज्य है। शोभता है, पशुओम सिंह शोभता है वैसे मुनि व श्रावक दोनोंके धर्ममें सम्यग्दर्शन शोभता हैं । इस आत्मानुभव विना सर्व व्यवहार मलीन ही हैं । सारसमुच्चय में कहा है १५० ] ज्ञानभावनचा जीवो लमते हितमात्मनः । विचारसम्पन्न विषयेषु पराङ्मुखः ॥ ४ ॥ भावार्थ --- जो जीव पांचों इंद्रियोंके विषयोंसे उदास होकर धर्मकी विस्व धर्म आचारसे युक्त होकर आत्मज्ञानकी भावना करता है वहीं अपने आत्माका हित कर सकता है । आपसे आपको व्याओ । अन्य अप्पड़ जो मुह जो परभाव चएइ । सोपा सरगम जिपवर एउ भणे || ३४ ॥ अन्वयार्थ --- (जो परभाव चएइ) जो परभावको छोड देता हैं (जो अप्पर अप्पा मुणइ ) व जो अपने से ही अपने आत्माका अनुभव करता है ( सो सिवपुरिगमणु पावर) वही मोक्षनगर में पहुंच जाता है (जिणवर एज भणेइ) श्री जिनेन्द्रने यह कहा है.
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy