SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार टीका। [१४९. होता है । इस आत्मानुभवके लिये जो बाहरी साधन व्रत, तप आदि व्यवहारचारित्र किया जाता है वह मात्र व्यवहार है, निमित्त है। यदि कोई व्यवहार ही चारित्र पाले तो भ्रम है, वह निर्वाणका साधन नहीं करता है। आचार्य वाखार इसी बातकी प्रेरणा करते हैं कि हे योगी ! नु मन, वचन, कायकी क्रियाको मोक्षका उपाय मत जान । जहाँ किंचिन भी विकल्प है या कुछ भी परपदार्थपर दृष्टि है वहीं शुभ राग है, वह बन्धका कारण है, कसकी निर्जराका कारण नहीं है। इसलिये तू सर्व प्रपंचजाल व चिता छोड़कर निश्चित होकर एक अपने ही आत्माकी तरफ लौ लगा, उसीको ध्याव, उसीका मनन कर, उसीमें सन्तोष मान, एक शुद्ध आत्माके अनमत्रसे उत्पन्न आनन्दामृतका पान का। व्यवहारचारित्रको व्यवहार मात्र समझ | बिना निश्यचारित्रके उसका कोई लाभ मोक्षमार्गमें नहीं है । व्यबहार मुनिका या श्रावकका संयम ठीक २ शास्त्रानुसार पालकर भी यह अहकार मत कर कि में मुनी हूं, मैं क्षुल्लक श्रावक हूं, मैं ब्रह्मचारी हूं. मैं धर्मात्मा गृहस्थ हूं | ऐसा करनेसे उसके मेपमें व व्यवहार में ही मुनिपना या गृहस्थपना मान लिया सो ठीक नहीं हैं । शुद्धात्मानुभव' ही मुनिपना हैं । बही श्रावकपना है, वही जिनधर्म है, ऐसा समझकर ज्ञानीको शरीराश्रित क्रियामें अहंकार न करना चाहिये । जो निश्चयनयकी प्रधानतासे अपनेको सिद्ध भगवानके समान शुद्ध तीन कालके सर्व कर्म रहित, विभाव रहित, विकल्प रहिन, मतिज्ञानादि भेद रहित, एक सहज ज्ञान या आनंदका समूह मानकर सर्व अन्य भासे अदास होजायगा वही निर्वाणमार्गपर आरूढ़ समझा जायगा। भावपाहुइमें कहा है -" -"- - - ------ --
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy