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________________ योगसार टीका। मैं सुखी हूं या दुःखी हूं ! इस अमानमई जीवके परिणामोंका निमित्त पाकर दूसरी पौगलिक कर्मवर्गणाएं स्वयं कर्मरूप होकर बन्ध जाती. हैं। जब यह जीव स्वयं अपने अशुद्ध भावोंमें परिणमन करता है तब उस समय पूर्वमें बांधा पौगलिक कर्म उदयमें आकर उस अशुद्ध भावका निमित्त होना है। इसतरह कर्मफल भावोंको व कर्मों के बंधको व कर्मके उदयको बोहरात्मा अपने मान लेता है। निश्यमे आत्मा इन सर्व कर्मकृत भावोस जुदा है । तौभी अज्ञानी बहिरात्माओं के यही प्रतिभाम या भ्रम रहता है कि वे सब भाव या विकार या दशा मेरी ही है। कर्मकृत परिणामोंको या रचनाको जो नियस पर है, अपनी स्वाभाविक परिणति या दशा मान लेना संसारभ्रमणका बीज है यह बीज संसार-वृक्षको बढ़ाता है। बहिरास्मा अन्धा मोही होकर संसार-बनमें भटकता रहता है | ज्ञानीको परको आत्मा नहीं मानना चाहिये। देहादिउ जे परकहिया ते अधाणु ण होहिं । इर जाणेविणु जीव तुई अप्या अप्य मुणेहि ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ-(दहादिउ जे परकहिया) शरीर आदि अपने आत्मासे भिन्न कहे गये हैं (ते अपाणु ण हाहि ) वे पदार्थ आत्मा नहीं होसक्के व उन रूप आत्मा नहीं होसक्ता याने आत्माके नहीं होसक्ते (इउ जाणविण) ऐसा समझकर (जीव) हे जीव ! (तुहूं अप्पा अप्प मुदि) अपनेको आत्मा पहचान, यथार्थ आत्माका बोध कर। भावार्थ-बहिरात्मा जब पर वस्तुओंको व परभावोंको अपना आत्मा मानता है तब अन्तरारमा ऐसा नहीं मानता है। वह मानता
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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