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________________ ! ; | योगसार टीका । [ ५६ हैं कि आत्मा आत्मारूप ही है। आत्माका स्वभाव सर्व अन्य आत्माओं व पुलादि पांच द्रव्योंसे व आठ कर्मोसे व आठ कर्मों के फलसे, सर्व रागादि भावोंसे निराला परम शुद्ध है। भेदविज्ञानकी कलासे वह आत्माको परसे बिलकुल भिन्न थान रखता है। भेदविज्ञानकी शक्तिसे ही भ्रमभावका नाश होता है। हंस दूधको पानी मे भिन्न ग्रहण करता है, किसान धान्यमें चावलको भूसीसे अलग जानता है । सुकी माला में सर्राफ सुवर्णको धागे आदि भिन्न समझता है, पकी हुई सागभाजीमें लवणका स्वाद सागसे भिन्न समझदारको आता है। चतुर एक गुटिका में सर्व औषधियोंको अलग २ समझता है । इसीतरह ज्ञानी अन्तरात्मा आत्माको सर्व देहादि पर क्योंसे भिन्न जानता है । आत्मा वास्तव में अनुभवगम्य है। मनसे इसका यथार्थ चितवन नहीं होसकता, बचनोंसे इनका वर्णन नहीं होता, शरीरसे इसका स्पर्श नहीं होता | क्योंकि मनका काम क्रम किसी स्वरूपफा विचार करना है । वचनोंसे एक ही गुण या स्वभाव एक साथ कहा जासक्ता है | शरीर मृतक स्थल द्रव्यको ही स्पर्श कर मक्का है जब कि आत्मा अनन्तगुण व पर्यायोंका अखण्ड पिंड है । केवल अनुअब ही इसका स्वरूप आसक्ता हैं । वचनों से मात्र संकेतरूपसे कहा जासक्ता है । मनके द्वारा क्रमसे ही विचारा जासक्ता है | इसलिये यह उपदेश है कि पहले शास्त्रोंके द्वारा या यथार्थ गुरुके उपदेश से आत्मा द्रव्य के गुण व पर्यायोंको समझ लें, उसके शुद्ध स्वभावको भी जाने तथा परके संयोगजनित अशुद्ध स्वभावको भी जाने अर्थात द्रव्यार्थिकनय से तथा पर्यायार्थिकनय या निश्चयजयस तथा व्यवहारनयसे आत्माको भलेप्रकार जाने । इस आत्माका सम्बन्ध किसी भी परवस्तुसे नहीं है। यह
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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