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________________ : : २८२] यागसार टीका । पांच जोड़ोंसे रहित व दश गुण सहित आत्माको ध्यावे | वे - पंचहँ रहियउ मुगहि वे- पंचहँ मंजुनु । वे पंच जो गुणसहित सो अप्पा गिरु वृत्तु ॥ ८० ॥ अन्वयार्थ - ( पंच राहिय ) दो प्रकार पचिस रहित होकर अर्थात पांच इन्द्रियों को रोककर व पांच अन्नतोंको त्यागकर (च-पंच संजुन मुणीह ) दो प्रकार पांच अर्थात् पांच इंद्रियदमनरूष ६ ६ पांच साहेन होकर काम करो (जो वे पंचहँ गुणसहि सो अप्पाणिरु बुनु ) जो दश गुप्प उत्तम क्षमादि सहित है व अनंतज्ञानादि दश गुण सहित है उसको निश्चय से आत्मा कहा जाता है । भावार्थ - आत्माका मनन निश्चिन्त होकर करना चाहिये । पांच इंद्रियोंके विपयोंमें उलझा हुआ उपयोग आत्माका मनन नहीं. कर सकता | इसलिये पांच इंद्रियोंकों संयम में स्वता चाहिये | इन्द्रियविजयी होना चाहिये व जगत के आरम्भ हटने के लिये हिंसा असत्य, स्तंय, अब्रह्म, परिग्रह इन पांच अविरत भावोंसे विरक्त होकर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग इन पांच महाव्रतोंको पालना चाहिये। साधुपदमें द्रव्य व भाव दोनों रूपसे निर्भय होकर एकाकी भावसे शुद्ध निश्चयनयके द्वारा अपने शुद्धात्माका मनन करना चाहिये | 1 दृष्टि आत्माका मनन करते हुए उसको दश लक्षणरूप 'विचारना चाहिये। यह आत्मा क्रोध विकार के अभाव से पृथ्वी के समान उत्तम क्षमा गुण धारी हैं, मानके अभाव मे उत्तम मार्दव गुण
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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