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________________ ७] योगसार टीका। भावार्थ-जो व्रत नियम धार, शील पाले, तप करे, परन्तु निश्चय आत्म-स्वभावके धर्मसे बाहर हो तो ये सब अज्ञानी बहिमात्मा है | परमार्थ आत्मतत्व में जो नहीं समझते वे अज्ञानमे संसार. भ्रमणकं कारण पुण्यकी ही वांछा करते हैं | क्योंकि उनको मोक्षके कावधाका ज्ञान ही नहीं है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य माझपाहडमें कहते हैंकि काहिदि बहिक कि काहिदि बहुविहं च खवणं तु । कि काहिदि आदाय आदसहावस्स विचरीदो ॥ १० ॥ भावार्थ-जो आमाके समापस करे, कोही अर करता है उसके रिये बाहरी क्रियाकाण्ड क्या फल देता है। नाना प्रकार उपवासादि नप क्या कर सत्ता है | आनापन योग आदि कायझेश क्या कर सन्ता है । अर्थात मोक्ष साधक नहीं हो सकते। मोक्षका साधन एक आत्मज्ञान है | समाधिशतकम कहा है यो न देति पर हादेवमात्मानमव्ययम् 1 लभते न स नि तप्वापिं परमं तपः ॥ ३३ ॥ भावार्थ-जो कोई शरीरादिस मिन्न इस प्रकारकं ज्ञाता दृष्टा अविनाशी आत्माको महीं जानता है वह उत्कृष्ट तप तपते हुये भी निवांणको नहीं पाता है। आत्मदर्शन ही मोक्षका कारण है। अादसग इक्क पर आ ण किं पि वियाणि । मोक्लह कारण जोईया पिच्छह एहउ जाणि ।।१६।। अन्वयार्थ-(जोईया.) हे. योगी ! (इक अम्पादसण मोक्खड कारण) पक आत्माका दर्शन ही मोक्षका मार्ग है (अण्णु
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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