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________________ i योगसार टीका | [ ७७ कभी अत्यन्त अल्पकालके लिये भी आत्मामें रमण करके आत्मानुभवको पा लेता है आत्मानन्दका भोगी हो जाता है । इसीतरह सामायिक करते हुए, पाठ पढ़ते हुए, जप करते हुए, मनन करते हुए आत्मामें थिरता पानेकी खोज करता है। जब उसे कुछ देर भी आत्मानुभव हो जाता है तब यह यात्रादिक करना सफल जानता है । व्यापारी धनका खोजक है, सम्यक्ती आत्मानुHEET खोजक है । आत्मानुभवकी प्राप्तिकी भावना विना शुभ कार्य केवल बन्धड़ीके कारण हैं। आत्मानुभवका लाभ ही मोक्षके कारणका लाभ है, क्योंकि वहां निश्रय सम्यक्क, निश्चय सम्यग्ज्ञान व निश्चय सम्यक्चारित्र तीनों गर्भित हैं। मोक्षकी दृष्टि रखनेवाला मोक्षमार्गी है। संसाको दृष्टि वाला कारनामों जो संसारकी दृष्टि रखके मूलसे उसे मोक्षकी दृष्टि मान ले वह मिथ्यादृष्टी है। सम्यग्टी मोक्षकी दृष्टि रखते हुए शुभ भावको बन्धका कारक व शुद्ध आत्मीक भावको मोक्षका कारक मानता है। इसी बात को इस दोहे योगीन्द्राचार्यने प्रगट किया है कि व्यवहार धर्ममें उलझकर विश्व धर्मको प्राधिको भुला न दो । यदि आत्मानुभवका स्वरूप चला गया तो भवभवमें अनन्तवार साधुकर चरित पालते हुए भी संसार ही बना रहता है। वह एक कदम भी मोक्षमार्गपर नहीं चल सका इसलिये पुण्य बन्धन कारक भावको मार्ग कभी नहीं मानना चाहिये । समयसार में कहा है--- वदणिमानवता सीराणि तहा तवं च कुव्र्व्वता । परमवादिराजेन तेण ते होंति अण्णाची ।। १६- ॥ परमदुवा हिरा जे ते अण्णाणेण पुष्णमिच्छति । संसारगमहेतु विमखहेतुं जयागंता ॥ २६९ ॥
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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