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________________ योगसार टीका । ही अपना सषा हित जानता है। हानी सम्परपी चौथे अविरत गुणस्थानमें भी है तोभी वह निरन्तर आत्मानुभवका ही खोजक कता रहता है। यह व्यवहार धर्म पूजा पाट, जप तप, स्वाध्याया व्रत आदि जो कुछ भी पालता है उसके भीतर बह घुण्यकी खोज नहीं करता है, वह पुण्यको चाहता है . वर प्रहार धर्म के निमित्तसे निश्श्यधर्मको ही खोजता है । जबतक नहीं पाता है तबतक अपना भयहार धर्मका साधन फेवल पुण्यगंध करेगा ऐसा समझता है । जैसे चतुर व्यापारी केवल धनको कमानेका प्रेमी होता हैवह हाटमें जाता है, माल खरीदता है, रमता मटाता है, तोलता न एता है, विक्रय करता है। जब धनका लाम करता है सब ही अपना सर्व प्रयास सफल मानता है। यदि अनेक प्रकार परिश्रम करनेपर भी धनकी कमाई न हो तो वह अपनेको व्यापार करनेवाला नहीं मानता है। सर्व उदाम कमानेका करता हुआ भी वह, जस उद्यमको धनका लाभ नहीं मानता है । पनका लाभ ही उसका ध्येय है, उस ध्येयकी मिद्धिका उदम निमित्त है इसलिये यह उनाम करता है। परन्तु रात दिन चाहना एक धनके लाभकी है । धनको वृद्धिको ही अपनी सफलता मानता है। इसी तरह सम्यग्रष्ट. झानी आत्मानुभवके लाभको ही अपना लाभ मानता है, वह रात दिन आत्मानुभवको ही खोजमें रहता है | इसी हेतुसे बाहरी व्यवहार धनका उद्यम करता है कि उसके सहारमे परिणाम फिर शीघ्र ही आत्मामें जाकर आत्मन्ध हो जाये । पदाहरणार्थ एक सम्यग्दष्टः गृहस्थ भगवानकी मजा करता है, गणानुबाद गाता है, अरहस्त र सिद्धये आत्मीक गुणोंका वर्णन करते हुए अपने आत्मीक गुणोंकः वर्णन मानता है। अश्य अपने आत्मापर होते हुए. पह पूजाके कार्यो मध्यमें कभी
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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