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योगसार टीका ।
- आत्मा स्वयं कभी रागादि भावों में परिणमन नहीं करता है। यदि मोहनीय कर्मको रागादि प्रकृतियोंका उदय होता है तब ही रागादि रूप परिणमता है । यह स्फटिक के समान स्वच्छ परिणमनशील है ।
देहादिरूप मैं नहीं हूं, यही ज्ञान मोक्षका बीज है। देहादिउ जो पर मुड़ जेहउ सुग्णु अगासु ।
सो लहू पावड़ (?) वै परु केवलु करइ पयासु ॥५८॥ पार्थ (जे पाहु कुग्भु) जैसे आकाश पर पदार्थोंके साथ सम्बन्ध रहित है, असंग अकेला है ( देहादिउ जो परु मुणइ ) वैसे ही शरीरादिको जो अपने आत्मासे पर जानता है ( सो पर बंभु लहू पाचइ ) वही परम ब्रह्म स्वरूपका अनुभव करता है (केवलु पयासु करई) व केवलज्ञानका प्रकाश करता है ।
भावार्थ-जैसे आकाश के भीतर एक ही क्षेत्रमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, असंख्यातकालाजु, अनंत जीव, अनंतानंद पुलाद्रव्य रहते हैं तथापि उनकी परिणति से आकाश में कोई विकार या दोष नहीं होता है- आकाश उनसे बिल्कुल शुन्य, निर्लेप, निर्विकार बना रहता है, कभी भी उनके साथ तन्मय नहीं होता है।
आकाशको सत्ता अलग व आकाशमें रहे हुए चेतन अचेतन पदार्थोंकी सत्ता अलग रहती है वैसे ही ज्ञानी को समझना चाहिये कि आत्मा आकाशके समान अमृतक है, आत्माके सर्व असंख्यात प्रदेश अमृर्तीक हैं । मेरी आत्माके आधारमें रहनेवाले तेजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक शरीर व शरीरके -वचन तथा उसके परिणमनसे सब मेरे आत्मासे भिन्न हैं । बंधप्राप्त कर्मोंके उदमसे होनेवाले तीव्र कषाय या मंदकषायके
आश्रित इन्द्रियां, मन व