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________________ योगसार टीका। [२३३ सम्यग्दर्शनका धारी ही आत्माका दर्शन भीतर कर सकता है। समयसारकलशमें कहा हैइन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत्पुप्फलोचलविकल्पची चिभिः ।। यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षण कृल्ममयति तदस्मि चिन्महः॥४६-३ भावार्थ- सी है जा जि मैं बैतन्यमा गि.. रूप पदार्थ है । जिस समय मेरे भीतर इस आस्मज्योतिका प्रकाश होता है अर्थान मैं जड़ आत्माको शुद्ध स्वभावका अनुभव करता हूं तब नानाप्रकारके विकल्प झालोका समूह जो इन्द्रजालके समान मनमें था यह सब दूर होजाता है। मैं निर्विकल्प स्थिर स्वरूरमें रमणकारी होजाता हूँ। आत्मानुभवका फल केवलज्ञान व अविनाशी सुख है। अप्पइँ अपु मुर्णतयहँ कि हा फलु होइ । केवल-गाणु वि परिणइ सासय-सुक्खु लहेइ ॥६२ ॥ अन्वयार्थ ( अप्प. अप्पु मुणंतयह ) आत्माको आत्माके द्वारा अनुभव करते हुप (किं हा फलु होइ) कौनसा फल है जो नहीं मिलता है, और तो क्या (ऋवलणाणु वि परिणवइ) केवल ज्ञानका प्रकाश हो जाता है (सासय-सुक्खु लहेइ) तब अविनाशी सुखको पा लेता है। भावार्थ-आस्माके द्वारा आत्माका अनुभव करना मोक्षमार्ग है । जो कोई इस आत्मानुभवका अभ्यास करना प्रारंभ करता है . उसको महान फलकी प्राप्ति होती है | जबतक केवलज्ञान न हो तबतक्षा यह आत्मध्यानी ध्यानके समय चार फल पाता है | आत्मीक सुखका
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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