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________________ ! ļ २३५ ] योगसार टीका । पाता है। वर्तमान जीवनकी ही चिंतामें उलझ जाता है। यदि कदाचित् दान, धर्म, तप, जप करता भी है तो उनके फलसे वर्तमान में यश, धनका व संतानका व इच्छित विषयका लाभ चाहता है । कदाचित् परलोकका विश्वास हुआ तो देवगतिके मनोज्ञ भोगोंकी तृष्णा रखता है । उसका सारा मन वचन व कायका वर्तन सांसारिक आत्माके मोहके ऊपर निर्भर रहता है । जब योग्य निमित्तके मिलनेपर इस जीवको तत्वज्ञान होता है इसकी मिध्यात्वकी ग्रंथि ढीली पड़ती है तब यह समझता है कि संसारकी दशा असार है, संसारका वास त्यागनेयोग्य है बन्धन काटनेयोग्य है, आत्मा ही सचिदानन्दमय एक अपना निज देव अनुभवनेयोग्य है, ध्यान करनेयोग्य है । अतीन्द्रिय सुख ही अकरा है इंद्रिय सुख लागनेयोग्य है, परमाणु मात्र भी आत्माका नहीं है, ऐसा भेदविज्ञान प्रगट होता है तब वह उसीका बारबार मनन करता है । तब सम्यग्दर्शनके निरोधक मिध्यात्व कर्म व अनन्तानुवन्धी चार कपायका उदय चन्द्र होता है । यह उपशम सम्यक्ती या उपशमसंवेदक सभ्यक्ती हो जाता है। संसार अति निकट रहनेपर वेदकसे क्षायिक सम्यक्ती हो जाता है | सम्यक्तके उदय होते ही इसका सर्व मोह गल जाता है। भीतरी प्रेम एक आत्मानन्दसे ही बढ़ जाता है । यही सम्यक्ती जीव निश्चिन्त होकर जब चाहे तब सुगमता से आत्माको भीतर सर्व शरीरोंसे भिन्न ज्ञानाकार देख सकता है । उसको अपनापन अपने ही आत्मापर रह जाता है, वह अन्य सर्व परद्रव्यांसे पूर्ण विरागी होजाता है | चारित्र मोहके उदयसे रोगीके समान कटुक दवाई पीनेके रूपमें लाचार हो, विषयभोग करता है, भावना उनके त्यागकी ही रहती है, दृष्टिमें ग्रहण योग्य एक निज स्वरूप ही रहता है।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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