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________________ यामसार दीका। [२७७ भावार्थ - महान ज्ञानक लक्षणधारी शुद्ध, निश्चयनयके द्वारा जो सदा ही अपने आत्माके एक स्वभावका अनुभव करते हैं. ये रागादि भावोंसे छूटकर बंध रहित शुद्ध आत्माको देख लेते हैं । तीनको छोड़ तीन गुण विचार । तिहि रहियट तिर्हि गुण सहिउ जो अध्याणि वसेइ । मो सासय-मुह-भायणु वि जिणत्ररु गम भणेइ ॥७८॥ अन्वयार्थ (निहिं रहियड) तीन गग द्वेष मोहसे रहित होकर (तिहि गुण-साहिल अन्याणि जो वसेइ ) तीन गुण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र सहित आत्माम आं निवास करता है ( सो सासय-गुह-भायणु वि) सो अविनासी सुखका भाजन होता है ( जिणवम एम भणेइ ) जिनेन्द्र ऐसा कहते हैं। भावार्थ- सम्यग्सष्टी जीवको यह निश्चय होना है कि आटों ही बंध आत्माके स्वभावमे भिन्न हैं | इनमें मोहनीय कर्म मुख्य है इसी उदय या प्रभावस जीवका उपयोग राग हेप मोहसे मलीन हो जाना है य सर्व ही कर्मका बंध इन बाग द्वेए मोहकी मलीनतासे होता है | जमे विवेकी जीन मलीन पानी में निमली डालकर मिट्टीको पानीले अलग करके निर्मल पानीको पीता है, वैसे ही ज्ञानी जीव भेदविज्ञान के थलस रागद्वेष भोडको आल्मामे मिन्न करके वीतराग विज्ञानमय आत्माका अनुभव करता है । राराम मोहके हटाने के लिये ज्ञानी जीव मोहनीय कमसे, रागद्वैप मोह भावोंसे तथा उनके उत्पन्न करनेवाले बाहरी द्रव्योंसे परम उदास हो जाता है । __व्यबहारनयसे देखनेपर मसारी जीवोंमें भेद दिखता है। मित्र, शत्रुका, मातापिताका, पुत्र-पुत्रीका, स्वामी सेवकका, त्याता
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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