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________________ २७८) योगसार टीका। म्येयका, सुन्दर असुन्दाका, रोगी निरोगीका, धनिक निर्धनका, विद्वान मुर्च का, बलवान निर्बलका, कुलीन अकुलीनका, माधु गृहम्थका, राजा प्रजाका, देव नारकीका, पशु मानवका, स्थावर उसका, सूक्ष्म बादरका, पर्याप्त अपर्याप्तका, प्रत्येक साधारणका, पापी पुण्यात्माका, लोभी सन्तोषीका, मायावी व सरलका, मानी त्र विनयवालेका, क्रोधी व कपटवालेका. स्त्री पुरुषका, बालक व वृद्धका.. अनाथ व सनाथका, सिद्ध व संसारीका, प्र. पायोग्य व न्यागनेयोग्यका भेद दिखता है तब विषयभोगका लोलुपी व कपायका धारी जीव इष्ट राग व अनिष्टसे ईप करता है । यह सब बाहरी व्यवहारमें दीखनेवाला जगन रागडेप मोहको पैदा करनेका निमित्त हो जाता है । इसलिये ज्ञानीको रागडेप मोद्द भावोंकी मलीनतारन पानेक लिये नियनयन जगतको देखना चाहिये। तब सब ही छः द्रव्य अपने मुल स्वभावमें अलग अलग दीख पड़ेंगे। सर्व पुदल परमाणुरूप, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, असंख्यात कालागु सब ही अपने २ स्वभावमें दीख पड़ेंगे तथा सर्व ही जीव एक समान शुद्ध दीख पड़ेगे । आप भी अपनेको शुद्ध देखेगा तब समभाव हो जायगा । रागद्वेप मोहका बाहरी निमित्त बुद्धिसे निकल गया तो आनत्र विना उन भात्रों का भी निरोध हो जाता है | इस तरह ज्ञानी जीव आत्मानुभवकं लिये गगद्वेष मोहको दूर करे, फिर अपने आत्माकं तीन गुणोंको ध्यावे । सम्यक्त ज्ञान चारित्र तीनों ही आत्मा के गुण हैं | आत्मा स्त्रभासे यथार्थ प्रतीतिका धारी है। आपको आप, परको पर यथार्थ श्रद्धान करनेवाला है व सर्व लोकालोकक द्रव्य गुणपर्यायोंको एक साथ जाननेवाला है । व चारित्र गुणसे यह परम वीतराग है, रत्नत्रय स्वरूप यह आत्मा अमंद दृष्टि से एकरूप है । शुद्ध स्फटिकके A
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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