SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार टीका। [२१९ स्वरूप विचार जाये ! उनके विचारमें यह देखे कि जीव तो मैं स्वभावस. शुद्ध हूं परंतु अनादिकालसे कमबंध होनेके कारण अशुद्ध हूं। कर्म जड़ पुगलके सूक्ष्म स्कंधोंसे बने हैं । उन कामण वर्गणाओंका में ही अपनी मन, बचन, कायकी क्रियासे घसीटता हूं व रागद्वेष मोहके वश घांधता हूं । यदि वीतरागी होकर आत्मतत्वकी भावना करूं तो नवीन कौके आनेको रोकदूं ब पुराने काँको समयके पहले तप द्वारा दूर करूं । इस तरह सर्व कर्मरहित होनेपर मैं मुक्त होसकता हूं | फिर व्यवहारनन्यसे देखना संखु करके निश्चयनयसे देखें कि मैं तो एक शुद्ध चेतन-स्वभावी आस्मा ई, कर्मादि सब पर हैं। जगतके पदार्थोको भी निश्चयरूपसे देखे कि यह जगत छः द्रव्यों पूर्ण है। वे सर्व ही द्रव्य भिन्न २ अपनी २ सत्ता में हैं, सर्व परमाणु निराले है, सर्व कालाणु निराले हैं, धर्म, अधर्म व आकाश द्रव्य निराले हैं, सर्व आत्माएं अलग अलग परम शुद्ध है, व्यवहारके नर नारक देव तिर्यचके व एफेंद्रियादिके मेदोंको व अनेक मन वचन कायसे होनेवाली क्रियाओंको नहीं देखे । सबै ही द्रव्योको क्रिया रहित निश्चल स्वभावमें देखे, जिससे प्रीति व अप्रीतिका कारण मिट जाचे व एक समभाव या वीतरागभावका प्रवाह बहने लगे। वीतराग भावकी शांत रससे भरी गंगा नदी बह निकली फिर केवल एक अपने ही शुद्ध अशरीरी आत्माको शरीर प्रमाण बिराजित भीतर सूक्ष्म भेद विज्ञानकी दृष्टि से देखनेका उगम करे । एकाकी अपने आत्माके गुणोंका चिन्तवन करे | इसे ही आत्माकी भावना कहते हैं। भावना करते करते एकाएक मन जब थिर होगा, आत्माका अनुभव जग जायगा, आत्माका दर्शन होजायगा । यही आत्मीक अनुभूति ध्यानकी आग है, जो कर्म ईंधनको जलायेगी व आत्माको
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy