SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३०] योगसार टीका। शुद्ध कुन्दनके समान शुद्ध बनाएगी। यदि मोक्षके लाभके अनुकूल. शरीरादि सामग्री होगी तो, यह साधक उसी भवसे नहीं तो, कुछः भवों में मुक्त हो जायगा, सिह गतिको प्राप्त कर लेगा। फिर कभी जन्म न होगा, फिर कभी माताका दूध नहीं पिवेगा। समाधिशतकमें कहा हैजनभ्यो वाक् ततः सान्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः । भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनैयोगी ततम्त्यजेत् ॥ ७२ ।। यस्य सस्पन्दमाभाति निःस्पन्देन समं जगत् । अप्रज्ञमक्रियायोगं स शमं याति नेतरः ॥ ६ ॥ भावार्थ-मानवोंसे बात करनेपर मनकी चञ्चलता होती है तर मनके भीतर भ्रममाव होते हैं, इसलिये योगीको मानवोंकी संगति त्यागनी चाहिये, एकांतसेवी होना चाहिये। जिसकी दृष्टि में यह चलता फिरता जगत हलनचलन रहित, बुद्धि विकल्प रहित, कार्य रहित, केवल निज स्वभावसे घिर दीखता है वही समभावको पाता है। निर्मोही होकर अपने अमूर्तीक आत्माको देखें। असरीरु वि सुसरीरु मुणि इहु सरीरु जडु जाणि । मिच्छा-मोहु परिचयहि मुत्ति णियं वि ण माणि ॥६१॥ अन्वयार्थ--(असरीरु वि मुसरीरु मुणि) अपने शरीररहित आत्माको ही उत्तम ज्ञानशरीरी समझे ( इह सरीरु जहुः जाणि) इस पुद्गल रचित शरीरको जड़ व ज्ञान रहित जाने (मिन्छा मोहू परिषयाहे ) मिथ्या मोहका त्याग करे (मुति णियं वि ण माणि) मूर्तीक इस शरीरको भी अपना नहीं माने !
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy