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________________ योगसार टीका । [ १३१ नहीं है । ऐसे त्रिपदके लाभका उपाय रातदिन अपने आत्माके स्वभावका मनन है | आत्मा स्वयं मोक्षरूप है। आत्मा स्वयं परमा - त्मा है। अपने शरीररूपी मन्दिरमें अपने आत्मादेवको देखना ही चाहिये कि यह शरीरप्रमाण है तथा यह शुद्ध है। इसमें कार्मण, तेजस, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, पाँचों पुरचित शरीरोंका सम्बन्ध नहीं है । न इसमें कोई संकल्प विकल्परूप मन में न फुल रचित वचन है | इसमें कोई कर्मके उदयजनिन भाव राग, द्वेष, मोह आदि नहीं है, यह परमवीतराग है। इसने कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण ये छःकारक विकल्प नहीं है न इसमें गुणगुणीक भेद हैं। यह एक अखण्ड अभेद सामान्य पदार्थ है । यह ज्ञान स्वभाव है, सहज सामायिक ज्ञानका भण्डार है। इसमें कोई अज्ञान नहीं है । इसका स्वभाव निर्मल दर्पण के समान पर प्रकाशक हैं । सर्व जाननेयोग्यको झलकानेवाला, एक समय में खण्डरहित सबैको विषय करनेवाला यह अद्भुत ज्ञान है । विना प्रयास ही ज्ञानमें .झे झलकते हैं । 1 यह आत्मा निरन्तर ज्ञानचेतनामय है । अपने शुद्ध ज्ञान स्वभावका ही स्वाद लेनेवाला है, निरन्तर स्वानुभवरूप है | यह पुण्य-पापकर्म करने के प्रपंचसे व सांसारिक सुखदुःख भोगने के किकरूपसे दूर हैं । कर्मचेतना और कर्मफलचेतना दोनों चेतनाएं अज्ञान'चेतना हैं | आत्मा ज्ञानचेतनामय है । यही सत्य बुद्धदेय है। आपसे ही आपको जाननेवाला स्वयं बुद्ध है और कोई बौद्धोंका देवता युद्ध नहीं है। सचा बुद्धदेव यह आत्मा ही है, यही सच्चा जिन है । सर्व आत्माके रागादि व कर्मादि शत्रुओंको जीतनेवाला है और कोई समवसरणादि लक्ष्मी सहित जिन है सो व्यवहार जिन है। वहां भी विश्वय जिन जिनराजका आत्मा ही है।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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