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________________ १३२ ] योगसार टीका । इसतरह निज आत्माको परम शुद्ध एकाकी मनन करना चाहिये तब कोई लौकिक कामना नहीं रखना चाहिये कि कोई चमत्कार सिद्ध हो व कोई ऋद्धिसिद्धि हो व लोकमें मान्यता हो व प्रसिद्धि हो । केवल एक अपने आत्मा विकासकी भावना रखके आत्माको ध्याना चाहिये । ध्यानकी शक्ति बढ़नेसे स्वयं कर्मोकी निर्जरा होती जायगी, नवीन कमौका सेवर होता जाएगा और यह आत्मा स्वयं शुद्ध होता हुआ शिवरूप हो जायगा । समयसार कलशामें कहा है चिच्छतिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयं । अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावा: पौद्धलिका अमी ॥३-२ ॥ सकलमपि विहायहाय चिच्छक्तिरिक्तं नववि इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात् कलयतु परमात्मानमात्मन्यनन्तं ॥ ४२॥ भावार्थ-यह जीव चैतन्य शक्तिसे सर्वांगपूर्ण है। इसके सिवाय सर्व ही रागादि भाव पुगलकी रचना है। वर्तमानमें चैतन्यशक्तिके सिवाय सबै ही पापको छोड़कर व चैतन्य शक्तिमात्र भावके भीतर भले प्रकार प्रवेश करके सर्व जगतके ऊपर भले प्रकार साक्षात् प्रकाशमान अपने ही आत्माको जो अनंत है, अनंतगुणांका भंडार है, अपने ही भीतर आत्मारूप होकर आत्माको अनुभव करना योग्य है। आपने ही आपको व्याना चाहिये । मोक्षपाहुडुमें कहा है- . अप्पा चरितवंतो दंसणणाण संजुदो अप्पा | सो झायो णि णाऊ गुरुप्रसारण ।। ६.४. ॥. --
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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