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________________ १३०१ योगसार टीका भावार्थ-तीन लोफमें व तीन कालमें सम्यग्दर्शनक समान जीवका कोई भी हितकारी नह: है तथा मिध्यादर्शनके समान जीवका कोई भी बुरा करनेवाला नहीं है । सम्यग्दर्शनको शुद्ध पालनेवाले जीव पांच अहिंसादि ब्रतोस रहित होनेपर भी मरकरके नारकी, पशु ल नासन व श्री नीद कुरमाने, अंग रहित, अल्प आधुवारी व दरिद्री नहीं होते हैं । यदि सम्यक्तके पहले नरक, नियंच या अल्प आयु बांधी हो तो पहले नकर्म, व भोगभूमिमें जाचंगे। साधारण नियम है कि देव व नारकी सम्यक्ती नरके मनुष्य होंगे व मनुष्य व पशु सम्यक्ती मरके स्वर्गवासी देव होंगे, मनुष्यणी व देवी नहीं होंगे । आत्मदर्शन सम्बक्तीको होजाता है, यही निर्माण पहुंचा देता है। शुद्ध आत्माका मनन ही मोक्षमार्ग है। सुद्ध सच्चेपणु युद्ध जिणु केवलणाणसहाउ । सो अप्पा अणुदिणु मुणहु जइ चाहउ मिवलाहु ॥२६॥ अन्वयार्थ—( जइ सिवलाहु चाहर ) यदि मोक्षका लाभ चाहते हो तो (अशुदिणु सो अप्पा मुणह) रात दिन उस आत्माका मनन करो जो ( मुद्ध) शुद्ध वीतराग निरंजन कर्मरहित है ( सच्चेयणु ! चेतना गुणधारी है, या ज्ञान चेतनामय है (बुद्ध) जो स्वयं बुद्ध है. (जिणु ) जो संसार-विजयी जिनेन्द्र है ( केवलणाणसहाउ) व जो केवलज्ञान या पूर्ण निराधरण ज्ञान स्वभावका धारी है। भावार्थ-यहां निर्वाणको शिष कहा है। क्योंकि निर्माणपद् परम कल्याणरूप व परमानन्दमय है। एक दफे आत्मा शुद्ध होजाता है, फिर अशुद्ध नहीं होता है। जैसे चना भूना हुआ फिर उगता
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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