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योगसार टीका। प्रायः संसारी जीवोंमें ये चौदह दशाएं हर समय पाई जाती हैं या इनमें खोजनेसे हरएकमें संसारी जीव मिल जावेगे | इनका स्वरूप व भेद ऐसा है
१-गति मार्गणा चार प्रकारगइउदयजपज्जाया चङगइगमणस हेउ वा हु गई । णारयतिरिक्खमाणुसदेवगइत्ति य हो चदुधा ।। १४६ ॥
भावार्थ-गति कर्मके उदयसे जो पर्याय होती है या चार गतियों में जानेका कारण जो उसे गति कहते हैं। वे चार हैं-सरकगति, तिचगति, मनुश्यगति, देवगति | हराएक संसारी जीव किसी न किसी गनिमें मिल जायगा | जब एक शरीरको छोड़कर जीव दुसरे शरीरमें जाता है तब बीचमें विग्रहगतिक भीतर उसी गतिका उदय माना जायगा जिसमें जारहा है |
२-इन्द्रिय मार्गमा पांच प्रकारउहमिदा जह देवा अबिसेस अहमहत्ति माता । ईसंति एकमकं ईदा व इन्द्रिय जाण ॥ १६४ ॥ .
भावार्थ-अहमिन्द्रोफे समान जो बिना किसी विशेषके अपनेको भिन्न अहंकारम्प माने व जो इन्द्रोंके समान एक एक अपना भिन्न २ स्वामीपना रंग, पाक सरेके साथी न हों, जो भिन्न काम करें उनको इन्द्रिय कहते हैं। वे पांच हैं-स्पर्शन, रसना, माण, चक्षु, श्रोत्र । इसीलिये संसारी जीत्र एकेन्द्रिय, वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, व पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। जिनक आगेकी इन्द्रिय होगी उनके पिछली अवश्य होगी। जिनके श्रोत्र होंगे उनके पिछली चार अवश्य होगी।