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________________ योगसार टीका। ३-काय मार्गणा छह प्रकार-- जाईनिण भावीतसथानर उदयजो हदे कायो । सो जिष्णमदमि भणिओ पुढवीकादिकम्भेयो ॥ १८॥ . भावार्थ-जाति कर्मक साथ अवश्यमेय रहनेवाले स्थावर तथा त्रस कर्मके उदयसे जो शरीर हो उसकी काय कहते हैं, उसके छः भेद जिनमतमें कहे गए हैं नाव काय, जलकाय, अग्नि या सेजकाय, घायुकाय, वनस्पतिकाप, लसकाय, छहाँकी शरीरकी रचनामें भेद है, इसलिये छः कायधारी जीव भिन्न होते हैं। मांसादि बस कायमें ही होता है, स्थावर शेष पांच में नहीं । बनस्पनिकाय व त्रसकायकी रचनामें पृथ्वी आदि चार काय सहायक हैं । ४-योग मार्गणा पंद्रह प्रकार--- पुग्गलबिवाइदेहोदयेण मशवयाणकायजुसम्म । जीवस्स भा हु सत्ती कम्मागमका जोगो ॥ २१६ ॥ भावार्थ-मन, वचन, काय नीन सहित या वचनकाय दो सहित या मात्र काय सहित जीवके भीतर पुद्गलविपाकी शरीर कर्मके उदयसे जो कर्म व नोकर्मत्रगणाओंको ग्रहण करनेकी शक्ति है उस शक्तिको योग कहते हैं। वह शक्ति जीवमें होती है परंतु इसका काम शरीर नामकर्मकं उदयसे होता है | पंद्रह योगासे किसीतक योगकी प्रवृत्ति होते हुए योगशक्ति हरसमय जहांतक अयोग केवली जिन न हो वहानक काम करती रहती है । विग्रहगतिमें कमबर्गणाओंको व तेजस वर्गणाओंको, शेप समय इन दोनोंके साथ साथ आहारक वर्गणाओंको, भाषा वर्गणाओंको (द्वंद्रियादिक ), मनोवर्गणाको (सैनीके ) ग्रहण करती रहती है। ४ चार मनके-सस्य, असत्य, उभय, अनुभव (जिसे सत्य व असत्य कुछ नहीं कह सकते)।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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