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________________ ! योगसार टीका | t १४७ - करना चाहिये | परिणामोंकी थिरता न होनेसे यदि कदाचित् व्यचहारवारित्र पालना पड़े तो उससे मोक्ष होगी ऐसा मानना नहीं चाहिये । व्यवहार चारित्रको चन्वका कारण जानकर उसको त्यागने योग्य समझना चाहिये। जैसे कोई सीढ़ीपर चढ़ता है उसे त्यागने योग्य समझकर छोड़ता ही जाता है। निश्य वारित्रपर पहुंचकर व्यवहारका स्मरण भी नहीं रहता है। जैसे कोरे के ऊपर पहुंचकर फिर सीढ़ीको कौन याद करता है ? सीढ़ी तो ऊपर आनेके निमित्त थी | इसी तरह व्यवहार चारित्रका निमित्त निश्चयका साधक हैं । निवत्र प्राप्त होनेपर वह स्वयं भावोंसे छूट जाता है, व्यवहार चारिनका राग नहीं रहता है । समयसार में कहा है - कन्ममहं कुत्रं सुदकम्मं नाति जा वह तं होदि सुसील जं संसारं वेदि ॥ १५२ ॥ सोवण शिव बंधदि कालायसं च ज पुरिसं । बंधन्दि एवं जीवं हमसुहं या कदं कर्म ॥ १५३ ॥ लाद मीहि राय माकाहि माव संसी । साहिणो हि विणासो कुसी संसगरायेति ॥ १५४॥ भावार्थ - अशुभ कर्म कुशील है, शुभ कर्म सुशील है, अच्छा है ऐसा व्यवहारी लोग कहते हैं । आचार्य कहते हैं कि शुभ कर्मको -सुशील हम नहीं कह सकते। क्योंकि यह संसार में भ्रमण कराता है। जैसे लोहेकी बेड़ी पुरुषको बांधती है वैसे ही सोनेकी बेड़ी बांधती है। उसी तरह शुभ व अशुभ दोनों ही किये गये काम जीवको बांधते ही हैं। इसलिये पुण्य पाप दोनोंको कुशील व खोटे समझकर उनले राग व उनकी संगति करना योग्य नहीं है । क्योंकि कुशीलोंकी
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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