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________________ ३१२] योगसार टीका | के समान सम्यग्दर्शनके बिना तुच्छ है । यदि सम्यग्दर्शन सहित हो तो उनका मूल्य महान रत्नके समान होजाता है । आत्म में स्थिरता संवर व निर्जराका कारण है। अजर अमर गुण-गण-पिलर जहि अप्पा थिरु ठाई । सो कम्मेहिण धिय संचिय - पुच्च विलाइ ॥ ९१ ॥ अन्वयार्थ - ( जहि अजर अमर गुण-गण- णिलड अप्पा थिरु ठाई ) जहां अजर अमर गुणांका निधान आत्मा स्थिर होजाता है ( सो कम्मोह ण बंधिय ) वहां वह आत्मा नवीन कर्मोसे नहीं चैता है ( पुव्व संचिय विल) पूर्व में संचितकमका क्षय करता है। भावार्थ - यह आत्मा निश्चय जन्म, जरा, मरणम रहित अविनाशी है तथा सामान्य व विशेष गुणोंका समूह है। कर्मोंस शरीरोंसे भिन्न जब अपने आत्माको देखा जाता है तो वह शुद्ध ङी दिखता है । 'जम मिट्टी सहित पानीको जब पानी स्वभावकी अपेक्षा देखा जाये तो पानी शुद्ध ही दिखता है । दविज्ञानकी शक्तिम अपने आत्माको कमसे भिन्न व कर्मद्रयजनित भावों भिन्न सहज ज्ञान, दडीत. सुख, श्रीका सागर निरंजन परमात्मादेव ही देखता चाहिये। को ऐसा ही श्रद्वान होता है। इस अज्ञान व ज्ञान से सम्यग्दृष्टी जीव अपने आत्मामें स्थिर होनेका पुरुषार्थ करता है। जबतक स्वानुभव या आत्मामें थिरता प्राप्त करता है तबतक पूर्व किमकी निर्जरा बहुत होती है । गुणस्थानांकी रीतिकं अनुसार वैध नियमित प्रकृतियोंका होता है । तथापि घातीय कर्मोंमें अनुभाग बहुत अन्य पड़ता है । अधानी में पाप कर्म का बंध नहीं होता है. पुण्य कर्मीका ही होता है । उनमें
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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