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________________ योगसार टीका! ३११ हूं, भयवान हूं, दुःस्त्री हूं, सुखी हूं, पुण्यका कर्ता हूं, पापका का हूं, परोपकारी हूं, दानी हूं, तपस्वी हूं, विद्वान हूं, प्रती हूं. श्रापक हूं, मुनि ई, राजा हूं, प्रधान हूं। इसी तरह पर वस्तुओंको अपनी मानकर ममकार करता था कि मेरा धन है, बेन है, मकान है, ग्राम है, राज्य है, मेरे वस्त्र हैं, आभूषण है, मेरी ली है. मेरे पुत्र पुत्री है, मेरी भगिनी हैं, मेरी माना है, 'मेरा पिता है, मरी नेना है, मेरे हाथी घोड़े हैं, मरी पालकी है | इस अहंकार ममकारमें अन्धा होकर रात दिन कर्मजनित संयोगों में ही क्रीड़ा किया करता था । इप्टके ग्रहण व अनिष्टके त्यागमें उद्यमी था । इस अज्ञानका नाश होते ही सभ्यतीका परभावोंमें अहकार व परपदार्थों में ममकार बिलकुल दूर होजाता है। ___ यह ग्रहस्थीमें जमतक रहता है तबतक काँक उदयको उदय मानकर सर्व गृहस्थ संबंधी लौकिक क्रियाको अपने आत्मीक कर्तव्यसे भिन्न जानता है । लिा नहीं होजाता है। भीनर वैरागी रहता है । कषायका उन्य जब शमन होता है तब गृह सागकर साधु हो जाता है । सम्यक्ती जीव सदा ही भेद विज्ञानके द्वारा अपने शुद्धात्माको भिन्न भ्याना है | धीरे २ आत्माको निर्मल करता है । सम्यक्ती माधु ही आपकश्रेणीपर आरूढ़ होकर मोहका व शेष झानावरणादिका पूर्ण क्षय करके कंवलज्ञानी अरहत परमात्मा होजाता है तब अविनाशी अनंत सुखका भोगनेवाला होजाता है । सम्यक्तके समान कोई मित्र नहीं है, यही समा मित्र है जो संसारके दुःखसे छुड़ाकर निर्माणमें पहुंचा देता है । आत्मानुशासन में कहा है-- समबोधवृत्ततपसां पापाणम्येब गौरवं पुंसः । पूज्यं महामणरिव तदेव सम्यक्त्वसंयुक्तम् ।। १५ ॥ भावार्थ-शांत भाव, ज्ञान, चारित्र, तपका मूल्य कंकड़ पाषा
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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