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________________ [२२. योगसार टीका। उसीको व्याता है, उसीका अनुभव करता है, उसी में ही निरन्तर विहार करता है, अपने आत्माके सिवाय अन्य आत्माओंको, सर्व पुद्गलोको, धर्माधर्माकाशकाल चार अमृतींक द्रव्यको व सर्व ही परभावोंको नर्स तक नहीं करता है वह ही अवश्य निल्य उदय कंप समयसार या परमात्माका अनुभव करता है। वास्तवमें यह आत्मा-. नुभव ही मोक्षमार्ग है, योगीको यही निरन्तर करना चाहिये । आत्मा तीन प्रकार है। तिपयागे अप्पा मुगहि पर अंतर बहिरपु । पर अश्यहि अंतरसहिउ बाहिरू चयहि गिर्भनु ||६|| अन्वयार्थ-(अप्पा तिघयारी मुहि ) आत्माको तीन प्रकार जानो, (परु.) परमात्मा (अंतम) अन्तरात्मा बहिरण). बहिरात्मा (भिभनु) भ्रांति या शङ्कारहित कर बाहिर चयहि) बहिरात्मानना जड़ दे ( अंतरसहिः) अन्तर::मः होकर (पर झायहि ) परमात्माका भयान का ; भावार्थ--द्रव्यदृष्टि का शुरु निश्चयनयन सत्र हो आत्मा एकसगान शुद्धबुद्ध परमात्मा ज्ञानानन्दमय है, कोई भेद नहीं है। द्रव्यक' स्वभाव सत है, सदा रहनेवाला है व सह उत्पाद उन्धय श्रीव्यरूप है ! हाएक द्रव्य अपने सर्व सामान्य नथः विशेष गुमोजो अपने भीतर सदा बनाए रहता है, उनमें पा भी गुण कम व अधिक नहीं होता इसलिये द्रव्य व्य होता है । हरएक गुण परिणमनशील है कटस्थ नित्य नहीं है : यदि कटस्थ नित्य हो तो कार्य न कर सके । गुणोंके परिणमनसे जो समय समय हराएक गुणकी अवस्था होती है. वह उस गुणकी पयाय है। . .. .. .
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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