________________
२८ ]
योगसार टीका |
दर्शनादि च गुणस्थान हैं, क्योंकि ये सब पुल द्रव्य के संयोग
- निमित्तसे होनेवाले परिणाम हैं।
श्री अमृतचन्द्राचार्य समयसारकलशमें कहते हैं -- ज्ञानादेव ज्वलनपय सोरोण्यशैत्यव्यवस्था ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वाद भेदव्युदासः । ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः
क्रोधादेव प्रभवति भिन्दा भिन्द्रती कर्तृभावन ॥१५-३॥ भावार्थ --- मेद विज्ञानके बलमे ज्ञानीको गर्म पानी में अझिकी उष्णता व पानीकी शीतता भिन्न दीखती है। मेद विज्ञानसे ही बनी हुई तरकारीमें लवणका व तरकारीका स्वाद अलग २ स्वादमें आता है। मेविज्ञान ही दीखता है के एक रस से भरा हुआ नित्य चैतन्य धातुकी मूर्ति वीतराग है तथा यह क्रोधादि विका-रोका कर्ता नहीं है। क्रोधादि अलग हैं, आत्मा अआ है । समयसारकलशमें और भी कहा हैदर्शनज्ञानचारित्रत्रात्मा तत्त्वमात्मनः । एक एव सदा सेव्योम एको मोक्षपयो एप नियतो मित्यात्मकस्तव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेव तं चेतनि । तस्मिन्नेव निरन्तरं विरहति द्रव्यान्तराण्यसदृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ॥४७-१०॥ भावार्थ -- सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमई आत्माका तत्व है, वहीं एक मोक्षमार्ग है। मोक्षके अर्थीको उचित है कि इसी एकका सेवन करं । दर्शनज्ञानचारित्रमय अम्मा ही निश्चय एक मोक्षका माग है । जो कोई इस अपने आत्मामें अपनी स्थिति करता है, रात दिन
मुमुक्षुणा ॥ ४६-१०॥