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________________ योगसार टीका। मनन करके मिथ्यात्व कर्मको व सम्यग्मिध्यात्व व सम्यक्त प्रकृति कर्मको अर्थात् तीनों दर्शन मोहनीयकर्मीको तथा चार अनन्तानुबंधी कषायोंको उपशम, क्षयोपशम या क्षय कर देता है, तय चौधे अविरत सम्यक्त गुणस्थानमें प्राप्त हो जिन कहलाता है। क्योंकि उसने संसार भ्रमणके कारण मिथ्यात्वको व मिथ्यात्व सहित रागद्वेष विकारको जीत लिया है, उसका उद्देश्य पलट गया है, वह संसारसे वैराग्यवान व मोक्षका परमप्रेमी होगया है। उसके भीतर निर्वाणपद लाभकी तीन रुचि पैदा होगई है। क्षायिक सम्यक्ती जीव श्रावक होकर या एकदम मुनि होकर सातवें अप्रमत्त गुणस्थानतक धर्मध्यानका अभ्यास पूर्ण करता है। फिर अपकणी पर आरूढ़ होकर दसवे सूक्ष्ममोह गुणस्थानक अन्तमे चारित्रं मोहनीयका सर्व प्रकार क्षय करके बारहवे गुणस्थानमें क्षीणमाह जिन हो जाता है। चौथे से बारहवें गुणस्थान तक जिन संज्ञा है, फिर बारहवेक अन्तमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय तीन शेष घातीय कर्मीका अय करके भरहन्त सयोग केवली हो, तेरहवे गुणस्थानमें प्राप्त होता है तब वह जिनेन्द्र कहलाते हैं। यहां चारों घातीय काँका अमात्र है। उनके अभावसे अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतदान, अनंतलाभ, अनंतमोग, अनंतउपभोग, अनंतवीर्य, क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक चारित्र ये नौ केवल लब्धियों तथा अनंतसुख प्राप्त हो जाते हैं ! इन दशको चार अनंत चतुष्टयमें गर्भित करके अनंतज्ञान, अनंत. दर्शन, अनन्तवीर्य व अनन्तसुखको यहां प्राप्त करना कहा है । सम्यक्त व चारित्रको सुखमें गर्मित किया है। क्योंकि उनके बिना सुख नहीं होता है व अनन्तदानादि चारको अनन्तवीर्यमें गर्भित किया है, क्योंकि वे उसीकी परिणतियाँ हैं । इसतरह अनन्त चतुष्टयमें
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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