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________________ यांगसार टीका | [ ७ दश गुण गर्भित हैं। सयोग केवली अवस्थामें अरहन्त धर्मोपदेश करते हैं उनकी दिव्यवाणीका अदभुत प्रकाश होता है, जिसका भाव सर्व ही उपस्थित देव, मानव व पशु समझ लेते हैं। सबका भाव निर्मल व आनन्दमय व सन्तोषी हो जाता है । उसी वाणीको धारणा में लेकर चार ज्ञानधारी गणधर मुनि आचासंग आदि द्वादश अंगोंमें ग्रंथते हैं। उस द्वादशांग वाणीको परंपरामे अन्य आचार्य समझते हैं। अपनी बुद्धिके अनुसार धारणा में रखकर दिव्य वाणीके अनुसार अन्य ग्रन्थोंकी रचना करते हैं । उन ग्रंथोंसे ही सत्यका जगतमें प्रचार होता है । सिद्धोंके स्वरूपका ज्ञान भी व धर्म सर्व भेदों का ज्ञान जिनवाणीसे ही होता है। जिसके मूल वक्ता अरहंत हैं । अतएव परमोपकार समझकर अनादि मूल मंत्र णमोकार मंत्रमें पहले अरहन्तोंको नमस्कार किया है, फिर सिद्धोंको नमन किया है | अरहंत परी तीर्थकर व समय केवल दोनों होते हैं । 1 कर नामकर्म एक विशेष पुण्यप्रकृति है। जो महात्मा दर्शनविशुद्धि आदि षोडशकारण भावनाओंको उत्तम प्रकार ध्याय कर तीर्थकर नामकर्म बांधते हैं वे ही नीकर केवली होते हैं। ऐसे तीथेकर परिमित ही होते हैं। भरत व ऐरावत क्षेत्रों में हरएक अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी कालमें चौबीस चौवीस होते हैं। विदेहोंमें सदा ही होते रहते हैं। वहां कमसे कम वीस व अधिक से अधिक एक सौ साठ होते हैं। भरत व ऐरावतके तीर्थंकरोंके गर्भ जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण पांचों कल्याणक उत्सव इंद्रादि देव करते हैं, क्योंकि वे पहले ही तीर्थकर कर्म बांधते हुए गर्भमें आते हैं। विदेहोंमें कोई २ महात्मा श्रावक पदमें कोई २ साधु पदमें तीर्थकर कर्म बांधते हैं। इसलिये वहां किन्होंके तप, ज्ञान, निर्वाण तीन व किन्होंके ज्ञान, निर्वाण दो ही कल्याणक होते हैं ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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