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योगसार टीका ।
तीर्थंकरों के विशेष पुण्यकर्मका
होता है उसे समताणकी विशाल रचना होती है। श्री मण्डपमें भगवान की गंधकुटी के चारों तरफ बारह सभाएं भिन्नर लगती हैं उनमें कमसेकम बारह प्रकारके प्राणी नियमसे बैठते हैं ।
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समवसरण स्तोत्र में विष्णुमेन मुनि कहते हैंऋषिकल्पजवनितार्या ज्योतिर्वनभवन युवतिभावनजाः । ज्योतिकल्पदेवा नरतित्रो वति तेष्वनुपूर्वम् ॥ १९ ॥
भावार्थ — उन बारह सभाओं में क्रमसे १ ऋषिगण, २ स्वर्गवासी देवी, ३ आर्यिका साध्वी, ४ ज्योतिपियोंकी देवी, ५ व्यंतर देवियां, ६ भवनवासी देवियां, ७ भवनवासी देव, ८ व्यंतरदेव, ९ ज्योतिषी देव १० स्वर्गवासी देव, ११ मनुष्य १२ तिर्यच बैठते हैं। इससे सिद्ध है कि आर्यिकाओंकी सभा अन्य श्राविकाओंसे भिन्न होती है उनकी मुद्रा श्वेत वस्त्र व पीछी कमण्डल सहित निराली होती है । शेष सर्व श्राविकाएं व अन्य स्त्रियां ग्यारहवें मनुष्य के कोटमें बैठती हैं। साधारण सर्व श्री पुरुष मनुष्य कोटमें व सर्व तिची व तिच पशुओं में बैठते हैं ।
सामान्य केवलियकि केवल गंधकुटी होनी है। सर्व ही अरहंतों के अठारह दोष नहीं होते हैं व शरीर परमोदारिक सात धातु र रहित स्कटिक के समान निर्मल होजाता है जिसकी पुष्टि योग बलसे स्वयं आकर्षित विशेष आहारक वर्गणाओंसे होती है। भिक्षासे ग्रास रूप भोजन करनेकी आवश्यक्ता नहीं होती है। जैसे वृक्षों की पुष्टि लेपाहारसे होती है। वे जैसे मिट्टी पानीको आकर्षण करते हैं योगबल से पुष्टिकारक स्कन्ध अरहंत के शरीर में प्रवेश करते हैं । उनके शरीर की छाया नहीं पड़ती है, नख व केश नहीं बढ़ते हैं।