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________________ योगसार टीका। आठवे भागमें संचलन मानक्रा, नौमें भागमें संज्वलन मायाका क्षय कर देता है । इसतरह अप्रत्याख्यानका अधिक २ स्वाइ आता है। सुक्ष्मसापराबाट गुणस्थानमा अग्धमें मिला लोन्का की शाय कर देता है तब बारहवें गुणस्थानमें जाकर यथाख्यात चारित्रको प्रगट करके शुद्ध सुखका अनुभव करता है | अट्ठाईस प्रकार मोहकर्मके अत्र होनेसे न मिटनेवाला सुख प्रगट हो जाता है । जब योगी द्वितीय शुक्लन्यानक बलम ज्ञानावरण, दशनावरण, अन्तराय तीनों कर्मोंका सर्वथा क्षय कर देता है तब तेरहवे गुणस्थानमें आकर केवलज्ञानी अहंत परमात्मा हो जाता है, उससमय निज आत्माका प्रत्यक्ष दर्शन व अनुभव हो जाता है । अबतक श्रुतमानके द्वारा परोक्ष ज्ञान था, अब केवलज्ञानीक प्रत्यक्ष ज्ञानक द्वारा प्रत्यक्ष अमृतीक आत्माका ज्ञान व अनुभव हो जाता है, अन्तराग्य कर्मके नाशसे अनंतवीय प्रगट होनेसे सुख परम शुद्ध व यथार्थ अनंतकाल तक स्वादमें आनेत्राला झलक जाता है इसलिये इस गुणस्थानमें यह अनंत सुख कहलाता है | फिर यह सुख कभी कम नहीं होता है, निरन्तर सिद्धोंके स्वाद में आता है । तत्वार्थसारमें कहा हैसंसारविषयातीतं सिद्धानामव्ययं सुखम् । अव्याबाधमिनि प्रोक्तं परमं परमर्षिभिः ॥ १५ ॥ लोके तत्सदृशो यर्थः कृलऽप्यन्यो न विद्यते । उपमींयेत तयेन तस्मान्निरुपमं स्मृतम् ॥ ५२-८ ॥ भावार्थ-सिद्धोंके संसारके विषयोंकी पराधीनतासे रहित अविनाशी सुख प्रगट होता है उस सुम्बको परम व बाधा रहित सुख परम ऋषियोंने कहा है। समस्त जगतमें कोई भी उस सुखके
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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