SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४८] योगसार टीका। समान पदार्थ नहीं है जिसको उस सुस्व गुणकी उपमा दी जासके इसलिये उस सुखको उपमा रहित अनुपम कहा गया है। आत्मा ही पंचपरमेष्ठी है। अरहंतु वि सो सिद्ध फुटु सो आयरिउ वियाणि । मो उवझायउ सो जि मुणि णिच्छइँ अप्पा जाणि ॥१०४॥ ___ अन्वयार्थ-( णिच्छ) निनयनयम ( अरहंतु वि अपा जाणि : आग्मा ही अरहत हैऐसा जानो (सो फुड सिद्ध) वही आरम, अमर सिद्ध है । सो पारेर मियाणि) उसीको आचार्य ज्ञानो (सो अवझायउ ) वहीं उपाध्याय है (सो जि मुणि) वही आत्मा ही साधु है। भावार्थ-निश्चयनयम जिसने आत्माका अनुभव प्राप्त कर लिया उसने पचिों परमेष्ठियोंका अनुभव प्राप्त कर लिया । ये पांचों पद आत्माको ही दिये गये हैं। व्यवहारनयसे या पर्यायकी दृशिसे आत्माके पांच भेद हो जाते हैं, निश्वयसे आत्मा एक ही रूप हैं । जिस आत्मामें चार घातीय कर्मो क्षयसे अनंत दर्शन, अनंत झान, नायिक सम्बक्त, भाषिक चारित्र, अनंत वीर्च, अनंत सुग्न, गुण प्रगद है परन्तु चार अघानीय कर्मोंका उदय है व उनकी सत्ता आरमाके प्रदेशोमें है। जो जीवन्मुक परमात्मा है वे अरहत हैं। अरहनका ध्यान करते हुए उनके पुदलमय शरीरपर व सिंहासन छत्रादि आठ प्रातिहार्य पर लक्ष्य न देकर उनकी आत्माकी शुद्धिपर लक्ष्य देना चाहिये व अपने आत्माको भी उस समान होनेकी भावना करनी चाहिये । आत्मीक भावोसे अरहंतकी आत्माको ध्याना चाहिये। ध्यान में
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy