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योगसार टीका। [ २४५ त्तिको त्यागना व्यवहारचारित है । मर्च कपायकी कालिमा रहित, निर्मल, उदासीन, आत्मानभवरूप निश्चयचारित्र है । हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पांव पापोंसे पूर्ण विरक्त होना साधुका व एकदेश विरक्त होना यात्रफका व्यवहारचारित्र है ।
तत्वज्ञानी विरले होते हैं। बिरला जाणहिं दत्तु बुह चिरला णिसुणहिं तत्तु । बिरला झामाई त जिन विरला धारहि तन्नु ।। ६६॥
अन्वयार्थ--- (विरल ह न जाणहि ) विरले ही पंडित आत्मतत्वको जानने है (बिस्ला दत्त किरणा) विरले ही श्रोता तत्वको सुनते हैं (विरला जिय लत्तु झायाह) विरले जीव हैी तत्वको च्याते हैं (विरला तनु धारहिं) विरले ही तत्वको धारण करके स्वानुभवी होते हैं।
भावार्थ-आत्मज्ञानका मिलना बड़ा कटिन है। थोड़े ही प्राणी इस अनुपम तत्वका लाभ कर पाते हैं। मगरहित पंचेन्द्रिय तक प्राणी विचार करनेकी शक्ति बिना आत्मा अनात्माका भेद नहीं जान सन । सी पन्नेन्द्रियों में नारकी जीत्र रात दिन कषायके कार्य में लंग रहते हैं । किनही प्राणियोंको आत्मज्ञान. होता है। पशुओंमें भी आत्मजानके पानेका साधन विरला है। देवोंमें विषयभोगों की अधिक है। वैराग्य भावकी मुलभता है। किनहीको आत्मज्ञान होता है। मानवोंके लिये साधन सुगम है तो भी बहुत दुर्लभ है।
अनेक मानव रात निः शरीरकी क्रिया मे तालीन रहते हैं कि उनको आत्माकी बात सुननेका अबसर ही नहीं मिलता है।