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________________ योगसार टीका। [२३ भावार्थ-अनंतानुबन्धी चार कषाय व मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त प्रकृति इन सात कर्मों के उपशमसे उपशम सम्यक्त व उनके क्ष्यसे क्षायिक सम्यक्त व छड्के उदय न होनेमे केवल सम्यक्तकं उदयसे वेदक सम्यक्त इस परवा में होता है. ला झपायके उदयसे असंयम भी होता है। (५) देशविरत-- पञ्चकवाणुइयादो संजनभावो ण होदि गरि दु । थोववदो होदि तदो दसवदो होदि पञ्चमओ ॥ ३० ॥ भावार्थ-प्रत्याभ्यान कषायके उदयसे यहां संयम नहीं होता है, किन्तु कुछ या एकदेशस्त होता है । इसलिये देशवत नामका पंचम गुणस्थान है। (६) प्रमसविस्त गुणस्थान संजला कसायागुदादो संजमा हो जाला । मलजाणणापमादविय तहमा हु पमत्तविरदो सो ।। ३२ ॥ भावार्थ · संज्मलन कषायं चार व नौ नोकषायों उदयसे संयम होता है परंतु अतीचार उत्पन्न करनेवाला प्रमाद् भी होता है इसलिये उसे प्रमत्तविरत कहते हैं। (७) अप्रमत्तविस्त गुणस्थान गट्ठासेसपमादो वयगुणसोलोलिमंडिओ गाणी । अणुवसमओ अखबओ झाणणिलीणो हु अपमत्तो ॥ ४६॥ . भावार्थ-सर्व प्रमादोंसे रहित, बन, गुण, शीलम मंडित, . शानी, उपशम व क्षपकश्रेणीके नीचे ध्यानलीन साधु अप्रमत्तविरत है। (८) अपूर्वकरण गुणस्थान- :
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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