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________________ २४] योगसार दीका। अन्तो मुहुनकाहं गमिऊण अधापवत्तकरम तं । पडिसमय सुझंतो अगुव्यस्थ समल्यिा ॥ ५० ॥ भावार्थ-सातवे गुणस्थानमें एक अन्नमुहूर्ततक अधःप्रवृत्त• करण समाप्त करके जब प्रति समय शुद्धि बढ़ाता हुआ अपूर्व परिणामोंको पाता है तब अर्धकरण गुणस्थान नाम पाता है । (९) अनित्तिकरण गुणस्थान पकमि कालसन्य संटाणादीहि जड़ णिति । ण णिवदृति तहावि य परिणामहि मिट्टी के हु ॥ ५६ ॥ होति अणियट्टिण ते पडिसमयं जेस्सिमकपरियामा । विमलयरझाणहुक्कासिहाहि जिद्द डिकम्मवपन्न ।। ५७ ।। भावार्थ-शरीरके आकारादिसे भिन्नता होनेपर भी जहां एक समयके परिणामोंमें परस्पर साधुओंके भिन्नता न हो व जिनके हरसमय एकसे ही परिणाम निर्मल बढ़ने हुए हों वे अनिवृत्तिकरण गुणास्थानधारी साधु हैं, जो अति शुद्ध ध्यानकी अग्निकी शिखाओंसे झमके वनको जलाते हैं। (१०) सूक्ष्मलोभ गुणस्थान-- अणुलोहं वेदंतो जीवो उचसामगो व खयागे या । सो मुहुमसंपराओ सहखादेणूणो किंचि ।। ६०॥ भावार्थ---जो सूक्ष्मलोमके उदयको भोगनेवाला जीव उपशम या झपक श्रेणी में हो वह सूक्ष्मसापराय गुणस्थानधारी है, जो यथाख्यात संयमीसे कुछ ही कम है। (११) उपशांतमोट गुणस्थान कदकफलजुदजलं वा सरए सरबाणिय व णिम्भलयं । सयलोबसन्तमोहो उबसन्तक्सायओ छोदि ॥ ६ ॥
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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